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एस धम्मो सनंतनो
को मित्र मान लेते हो, मित्र हो जाता है; शत्रु मान लेते हो, शत्रु हो जाता है। तुम्हारी मान्यता ही... ।
और अपनी मान्यताओं को गिरा देना, अपनी मान्यताओं से मुक्त हो जाना, संसार से मुक्त हो जाना है। संसार बाहर नहीं है, तुम्हारे देखने के ढंग में है । मैंने सुना है
एक दिन बैठा समुंदर तीर पर सुन रहा था बुलबुले की मैं कथा एक कागज की दिखी किश्ती तभी थी खड़ी जिसमें पहाड़ों की व्यथा बोझ इतना धर मुझे अचरज हुआ चल रही है किस तरह यह धार में हंस कहा उसने, चलाती चाह है
आदमी चलता नहीं संसार में
चाह खींचे लिए जाती है। तुम दुख में हो, तुम दुख में ही जीते हो, चाह कहती है, कल सुबह सूरज उगेगा। थोड़ी रात और है, गुजार दो। फिर कल यहीं दोहरता है । फिर तुम अंधेरे में जीते हो; चाह कहती है, कल सूरज उगेगा। थोड़ी देर है, अंधेरे सूरज की आशा में गुजार दो।
चाह सपने देती है और जीवन के सत्य को तुम झुठलाए चले जाते हो। तुम्हारे स्वर्ग की आकांक्षा तुम्हारे मौजूदा नर्क को भुलाने का उपाय है। और तुम्हारी आने वाली सुबह कभी न आएगी। क्योंकि तुम्हारी आने वाली सुबह से सत्य का कोई संबंध नहीं है। तुम्हारी आने वाली सुबह में और घनी रातों का आना निश्चित है, क्योंकि चाह से भरा मन और नए नर्क बना लेगा ।
करना क्या है? जागकर जो मौजूद है, उसे देखना है। काश, तुम मौजूद हो जाओ ! तो दुख अपने आप विसर्जित हो जाता है। जो भी जागा, उसने दुख नहीं पाया। जो भी जागा, उसने समझा कि दुख मेरी ही आकांक्षाओं की छाया थी ।
ऐसा समझो कि तुम धूप में खड़े हो और तुम्हारी छाया बनती है; अब तुम इस छाया से भागते फिरो, बच न पाओगे । धूप में खड़े हो, छाया बनती ही रहेगी। तुम किसी साए में विश्राम करो, छाया खो जाएगी। तुम किसी वृक्ष के तले बैठ जाओ, छाया खो जाएगी। धूप में तो भागकर भी भाग न सकते थे; छाया पीछा करेगी। लेकिन साए में बैठकर भी छाया से मुक्ति हो जाती है । मूर्च्छा में भाग-भागकर तुम दुख से बच न पाओगे, जागकर बैठ भी जाओ तो दुख से छुटकारा हो जाता है।
बुद्ध बैठे हैं बोधिवृक्ष के तले; दुख से भागने का सवाल ही न रहा, दुख है ही नहीं। उस छाया में दुख का साया खो गया है। तुम भागे जा रहे हो — धूप-ताप से भरे, पसीने से लथपथ, खून को पसीना करते हो पूरे जीवन, हाथ में लगता क्या है ?
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