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________________ एस धम्मो सनंतनो होगा । निंदा के प्रति कान बंद मत करना; आलोचना के प्रति कान बंद मत करना; उससे लाभ ही हो सकता है, हानि कुछ भी नहीं हो सकती। क्यों लाभ हो सकता है? क्योंकि निंदा करने वाला अगर झूठ बोले तो कुछ हर्जा नहीं; क्योंकि उसके झूठ में कौन भरोसा करेगा ? निंदा के तो सच में भी भरोसा करने का मन नहीं होता । सच्चे आदमी को निंदक झूठा कहे, सच्चा आदमी मुस्कुराकर निकल जाएगा। इस बात में कोई बल ही नहीं है। यह बात ही व्यर्थ है । इस पर दो क्षण सोचने का कोई कारण नहीं। इस पर क्रोधित होने की तो कोई बात ही नहीं उठती । ध्यान रखना, जब तुम किसी को झूठा कहो और वह क्रोधित हो जाए तो समझना कि तुमने कोई गांठ छू दी; तुमने कोई घाव छू दिया; तुमने कोई सत्य पर हाथ रख दिया। जब वह अप्रभावित रह जाए तो समझ लेना कि तुमने कुछ झूठ कहा। चोर को चोर कहो तो बेचैन होता है। अचोर को चोर कहने से बेचैनी क्यों होगी? उसके भीतर कोई घाव नहीं है, जिसे तुम चोट पहुंचा सको । निरहंकारी को अहंकारी कहने से कोई कांटा नहीं चुभता; अहंकारी को ही चुभता है। - तो अगर कोई तुम्हारी निंदा झूठ करे तो व्यर्थ । सच्ची निंदा में ही भरोसा नहीं आता तो झूठी निंदा में तो कौन भरोसा करेगा? लेकिन अगर निंदा सच हो तो बड़े काम की है, क्योंकि तुम्हारी कोई कमी बता गई, तुम्हारा कोई अंधेरा पहलू बता गई; तुम्हारा कोई भीतर का भाव छिपा हुआ, दबा हुआ प्रगट कर गई। जिसे तुम अपनी पीठ की तरफ कर लिए थे, उसे तुम्हारे आंख के सामने रख गई । कमियां आंख के सामने आ जाएं तो मिटाई जा सकती हैं। कमियां पीठ के पीछे हो जाएं तो बढ़ती हैं, फलती हैं, फूलती हैं; मिटती नहीं । तो निंदक नुकसान तो कर ही नहीं सकता, लाभ ही कर सकता है। कबीर ठीक कहते हैं, निंदक नियरे राखिए। उसे तो पास ही बसा लेना । उसका तो घर-आंगन, कुटी छवा देना । उससे कहना, अब तुम कहीं जाओ मत; अब तुम यहीं रहो, ताकि कुछ भी मैं छिपा न पाऊं। तुम मुझे उघाड़ते रहो, ताकि कोई भूल-चूक मुझसे हो न पाए; ताकि तुम मेरे जीवन को नग्न करते रहो ; ताकि मैं ढांक न पाऊं अपने को । क्योंकि जहां-जहां घाव ढंक जाते हैं, वहीं-वहीं नासूर हो जाते हैं। घाव उघड़े रहें खुली हवा में, सूरज की रोशनी में - भर जाते हैं । और घाव उघड़े रहें तो तुम उन्हें भरने के लिए कुछ करते हो, औषधि की तलाश करते हो, सदगुरु को खोजते हो, चिकित्सक की खोज करते हो । बुद्ध ठीक कहते हैं, 'निधियों को बतलाने वाले के समान... ।' निंदक को ऐसे समझना, जैसे कोई खजाने की खोज करवा रहा हो। तुम्हारी भूल-चूकों में ही तुम्हारी निधि दबी है । और जब तक तुम भूल-चूकों के पार न हो ओ, निधि को न पा सकोगे। 210
SR No.002380
Book TitleDhammapada 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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