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________________ एस धम्मो सनंतनो ने जान लिया, कृष्ण ने जान लिया, अब हम क्यों पंचायत में पड़ें? हम इन्हीं को पकड़ लेंगे, इन्हीं के चरणों के सहारे निकल जाएंगे। ___ यह आस्था नहीं है, यह केवल कमजोरी है। और कमजोर की कोई गति नहीं है। यह भरोसा नहीं है कि हम बुद्ध के चरणों पर चलकर निकल जाएंगे। जिसका अपने पर ही भरोसा नहीं है, उसका बुद्ध पर कैसे भरोसा होगा? तुम्हारे आत्म-अविश्वास से किसी भी तरह की आस्था का जन्म नहीं हो सकता। जब तुम अपने पर ही अभी भरोसा नहीं ला पाए हो तो तुम अपने भरोसे पर कैसे भरोसा ला पाओगे? थोड़ा सोचो तो! उलझन और बढ़ा रहे हो। तुम अगर डगमगाते हो तो तुम बुद्ध के पीछे भी डगमगाते ही चलोगे। क्योंकि डगमगाने का संबंध बुद्ध के पीछे चलने से नहीं है, डगमगाने का संबंध तुम्हारी भाव-दशा से है। तुम अगर संदेह से भरे हो तो तुम छिपा लो संदेह को भला, मिटा न पाओगे। तुम किसी तरह भुला लो भला, समाप्त न कर पाओगे। बुद्ध के पीछे भी चलते रहोगे और भीतर संदेह भी उमगता रहेगा। चलोगे भी और नहीं भी चलोगे। और यह कोई चलना ऐसी बाहर की यात्रा होती तो बड़ा आसान था; यह बड़ी भीतर की यात्रा है। बुद्ध के पीछे चलने का अर्थ है : अपने भीतर जाना; और तो कोई अर्थ नहीं है। वहां तो तुम अकेले हो जाओगे। वहां तो बुद्ध भी साथ न होंगे। वहां तो जितने तुम बुद्ध के करीब आओगे, उतने बुद्ध से दूर हो जाओगे। जितने तुम बुद्ध को समझोगे, उतने अपने करीब आना शुरू हो जाएगा। ___अंततः बुद्धों का उपयोग यही है कि वे तुम्हें तुम पर छोड़ दें-पूरा का पूरा। तुम्हें इस योग्य बना दें कि तुम्हें किसी भरोसे की, किसी श्रद्धा की, किसी आस्था की जरूरत न रहे। ____ आदमी जल्दी भरोसा कर लेना चाहता है। क्यों? क्योंकि खोज से बचना चाहता है। खोज कठिन मालूम पड़ती है। इसलिए हम कोई भी बात मान लेते हैं। किसी ने कह दिया, ईश्वर है, तो मान लिया। किसी ने कह दिया, नहीं है, तो वह भी मान लिया। इसलिए तो तुम्हारा मन एक विडंबना है। तुमने अनेक लोगों की बातें मान ली हैं। वे सब विपरीत हैं, विरोधी हैं, विरोधाभासी हैं। उन सबमें भीतर कलह मची रहती है। तुम्हारे भीतर एक महाभारत चलता रहता है। एक स्वर कहता है, ईश्वर है; एक स्वर कहता है, नहीं है। एक स्वर कहता है, यह ठीक; एक स्वर कहता है, यह बिलकुल गलत; जरा भी ठीक नहीं। तुम ऐसे कुरुक्षेत्र में, ऐसे संघर्ष में कहां पहुंच पाओगे? जो जानते हैं, उन्होंने कहा है, तुम इन सभी धारणाओं को छोड़ दो। तुम निर्धारणा हो जाओ। तुम शून्य भाव को उपलब्ध हो जाओ। सब हटा दो। यह सब कूड़ा-करकट है। जब तुम कोई भी धारणा न रखोगे अपने भीतर, तुम्हारी आंख निर्मल होगी। कोई विचार की तरंग न होगी आंख पर। जैसे झील शांत हो, एक भी 192
SR No.002380
Book TitleDhammapada 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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