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जागरण और आत्मक्रांति
वह इस पृथ्वी का नहीं होता, किसी और ही लोक की किरण उतर आती है तुम्हारे अंधकार में। तुम आलोकित हो जाते हो। जब तुम छोड़ते हो तो तुम तुम ही हो, तुम्हारा छोड़ा हुआ बहुत दूर नहीं ले जाता।
पकने दो। जल्दी न करो। फल पककर अपने से गिर जाते हैं। स्वीकार करो, जहां हो, जैसे हो। लोभ है तो लोभ; भय है तो भय। स्वीकार करो। बस, इतना ही खयाल रखो कि धीरे-धीरे जागकर देखो। दौड़ते रहो लोभ की दुनिया में, मगर धीरे-धीरे जागकर दौड़ने लगो। एक दिन अचानक तुम पाओगे, ठिठककर खड़े हो गए हो। ऐसा नहीं कि तुम्हें अपने को रोकना पड़ा है; बल्कि ऐसा कि जैसे पेट्रोल ही चुक गया है, गाड़ी ठिठककर खड़ी हो गई है। ब्रेक नहीं लगाने पड़े। मूर्छा चुक गई, ईंधन चुक गया, अचानक तुम खड़े हो गए हो। उस खड़े होने के सौंदर्य को, उस खड़े होने की महिमा को ही त्याग कहा जा सकता है।
जहां तुमने ब्रेक लगाए, जबर्दस्ती की, किसी तरह खड़े हो गए और इंजिन भरभराता रहा और इंजिन जलता रहा और धुआं फेंकता रहा...। तुम्हारे त्यागी संन्यासी ऐसे ही खड़े हैं; जबर्दस्ती ब्रेक लगाए खड़े हैं। जीवन एक अड़चन बन जाता है—भोग का भी और त्याग का भी। जीवन चाहिए, सहज प्रवाह की भांति। अड़चन न हो।
न पकड़ो, न छोड़ो; जागो। देखो और समझो; और समझ पर भरोसा रखो। यह समझ की परिपक्वता अपने आप क्रांति ले आएगी। ले आती है।
दूसरा.प्रश्न:
क्या बात है कि कोई न कोई विश्वास पकड़ लेने से–चाहे वह आस्तिकता हो या नास्तिकता, मन बहुत आश्वस्त अनुभव करता है? दोनों को छोड़कर बीच में खड़ा होना उसके लिए असंभव जैसा क्यों है?
अस्ति त्व में निर्धारणा के खड़े हो जाने से बड़ा कोई साहस नहीं है।
- निर्धारणा का अर्थ होता है : कोई विश्वास नहीं, कोई अंधविश्वास नहीं। निर्धारणा का अर्थ होता है : अस्तित्व जैसा है, हम उसे वैसा ही देखेंगे। अपनी कोई धारणा बीच में न लाएंगे। न हम कहेंगे, ईश्वर है; न हम कहेंगे कि ईश्वर नहीं है। न हम कहेंगे कि आत्मा है, न हम कहेंगे कि आत्मा नहीं है। हम खोजेंगे।
पर खोज कठिन है। खोज का अर्थ है : मूल्य चुकाना पड़े। कौन इस झंझट में पड़े? तो हम उधार विश्वास ले लेते हैं। हम कहते हैं, महावीर ने जान लिया, बुद्ध
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