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________________ एस धम्मो सनंतनो एक आदमी रास्ते पर भीख मांग रहा है, बुद्ध ने भी भीख मांगी। बुद्ध भी रास्ते पर भीख मांग रहे हैं। दोनों भिखारी हैं, लेकिन फर्क करोगे या नहीं ? दोनों के हाथ में भिक्षापात्र है माना, लेकिन दोनों का अंतरबोध बड़ा भिन्न है । एक भिखारी है, सिर्फ भिखारी है। और एक ऐसा भिखारी है, जो सम्राट था। एक ऐसा भिखारी है, जिसने व्यर्थता जानी है सबकी । और एक ऐसा भिखारी है, जो अभी भी कौड़ी - कौड़ी इकट्ठा करके सम्राट होने की चेष्टा में लगा है। दोनों एक से मालूम पड़ते हैं । | • यह हालत ऐसी ही है, जैसे कि तुम सीढ़ियों से जा रहे हो, बीस सीढ़ियां हैं, तुम दसवीं सीढ़ी पर पहुंच गए हो। और कोई सीढ़ियों से उतर रहा है, बीस सीढ़ियां हैं, और वह भी दसवीं सीढ़ी पर आ गया है। तुम दोनों एक ही सीढ़ी पर खड़े हो, लेकिन एक उतर रहा है, एक चढ़ रहा है। एक ही सीढ़ी पर खड़े होने से भ्रम में मत पड़ जाना कि तुम एक ही जगह हो । एक उतर रहा है, एक चढ़ रहा है। बुद्ध उतर आए हैं सिंहासन से, भिखारी चढ़ने की कोशिश कर रहा है। जन्म-जन्म लगेंगे उसे, शायद कभी चढ़ पाए। दोनों भिक्षा के पात्र लिए खड़े हैं एक ही जगह। बड़ी भिन्न है उनकी दशा । बुद्ध जाग गए हैं, सिंहासन की व्यर्थता दिखाई पड़ गई है। यह भिखारी अभी सोया हुआ है। अभी यह सिंहासन बनाने के सपने देख रहा है। हारकर मत भागना। क्योंकि हारकर अगर यह भिखारी बुद्ध के साथ हो ले, जिसकी बहुत संभावना है; क्योंकि इसको लगे कि क्या सार? जब बुद्ध सब कुछ छोड़कर आ गए तो क्या सार? तो मैं भी साथ हो लूं। यह भी साथ हो ले, मगर इसका साथ होना बहुत सार्थक न हो पाएगा। इसकी चित्त - दशा अलग है। यह जो कहेगा, अपने मन में यही कहेगा कि लोभ में चिंता है, लोभ में हानि है, लोभ में कोई सार नहीं है, लोभ में ऐसा है, लोभ में वैसा है। यह समझाएगा अपने को । यह रहेगा मूर्च्छित । लोभ इसे अभी भी सार्थक है। सार्थकता को दबाने के लिए कहेगा, लोभ जहरीला है, लोभ पाप है। अपने को घबड़ाने के लिए कहेगा कि अगर लोभ में पड़ा तो नर्क में जाना पड़ेगा। अगर लोभ से बचा तो मैं भी स्वर्ग जाऊंगा। यह नए लोभ बनाएगा, पुराने लोभों के प्रति भय खड़े करेगा। लेकिन बुद्ध के भीतर की दशा और है। लोभ के प्रति कोई विरोध नहीं है अब । लोभ विरोध के योग्य भी नहीं है । इसीलिए तो मैं कहता हूं, संसार छोड़ने के योग्य भी नहीं है । इतना भी मूल्य मत दो। यह भी बड़ा मूल्य हो जाएगा कि छोड़ें; इस लायक भी नहीं है। कोरा सपना है। आंख खोलो, जाना कहीं भी नहीं है । अन्यथा एक के बाद एक नए उलझाव खड़े होते चले जाते हैं। सारा जोर हमारा इस बात पर है कि जल्दी न करना त्याग की; त्याग को आने देना अपने से। जब अपने से आता है तो परम सुंदर है । जब तुम थोप लेते हो तो कुरूप हो जाता है । जब सहज - - स्फूर्त होता है तो उसके लावण्य की बात ही नहीं । 190
SR No.002380
Book TitleDhammapada 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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