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________________ लाभ-पथ नहीं, निर्वाण-पथ मेहनत हो गई, व्यर्थ की परेशानी हुई। ___तुमने उपवास किया, अब तुम कहते हो, स्वर्ग में जगह चाहिए। उपवास का अपना ही आनंद है। अगर ठीक से किया, अगर जाना कि कैसे करें, तो उपवास का परम आनंद है। वह उपवास में ही मिल जाएगा। वह शांति, वह सरलता, जो उपवास की घड़ियों में घटती है; वह निर्भार हो जाना, पंख लग जाना, जो उपवास की घड़ियों में घटते हैं; एक भीतर स्वच्छता का अनुभव, एक ताजगी का भर जाना, वह जो उपवास में उतरता है, अपने-आप में परिपूर्ण है। कहीं और जाने की जरूरत नहीं। कुछ और मांगने का सवाल नहीं। जिसने उपवास किया, उसने पा लिया। प्रार्थना का मजा प्रार्थना में परिपूर्ण है। फिर तुम जब हाथ फैलाते हो मांगने के लिए, तो इतना ही बताते हो कि प्रार्थना झूठ थी। तुम्हें प्रार्थना में कुछ न मिला, अब तुम और हाथ फैलाते हो? प्रार्थना भी मतलब से करते हो? प्रार्थना भी तरकीब थी परमात्मा को फुसलाने की? प्रार्थना भी जैसे खुशामद थी! ____संस्कृत में तो प्रार्थना को स्तुति ही कहते हैं-खुशामद; कि तुम महान हो, बड़े हो, ऐसे हो, वैसे हो-मतलब की बातें हैं। जब काम पड़ा, कह लीं; जब काम न रहा, कौन करता है याद! ____ तो दुख में खुदा याद आ जाता है। पीड़ा में परमात्मा की बातें होने लगती हैं। सुख में सब भूल जाते हैं। स्तुति शब्द ही गंदा है-खुशामद! कुछ पाने की इच्छा! तो परमात्मा को तुम फुसला रहे हो बड़ा-बड़ा कहकर। तुम उसके अहंकार को फुला रहे हो। तुम उससे कह रहे हो, देखो, इतना बड़ा कहा, अब सिद्ध करना कि हो इतने बड़े। तो प्रार्थना जब पूरी कर दोगे तो सिद्ध हो जाएगा कि जरूर बड़े हो; फिर और बड़ा कहेंगे। तुम खेल किससे खेल रहे हो? तुम अपनी मूढ़ता परमात्मा के भीतर भी डाल रहे हो। ___ तुमसे इसी तरह काम चलता है। तुमसे जब किसी को काम लेना होता है तो वह कहता है, अहा! तुम जैसा कोई आदमी नहीं; महात्मा हो। सब बातें करके वह कहता है, एक पांच रुपया उधार चाहिए। अब तुम जरा मुश्किल में पड़ते हो; क्योंकि इसने महात्मा भी कहा, अब इज्जत का भी सवाल है। अब पांच रुपए के पीछे कोई महात्मापन खोता है? अब दे ही दो; ज्यादा से ज्यादा ले ही जाएगा। उसने भी इसीलिए कहा। दे दोगे तो वह भी मुस्कुराएगा सीढ़ियां उतरकर कि खूब बनाया। मतलब था। तुम अहंकार की भाषा समझते हो तो तुम सोचते हो, परमात्मा भी अहंकार की ही भाषा समझेगा। निर्वाण का रास्ता नहीं है, लोभ का रास्ता है। प्रार्थना तो इतनी सुंदर है अपने में, इतनी पूरी है अपने में, परिपूर्ण है; उससे. ज्यादा और पूर्णता कुछ हो नहीं सकती। जो नाच लिया प्रार्थना में, जो गीत गा लिया, उस पर वर्षा हो गई अमृत की। वह भर गया; उसकी झोली भरी है। झोली फैलाने 173
SR No.002380
Book TitleDhammapada 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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