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________________ लाभ-पथ नहीं, निर्वाण-पथ पहचान लो कि नीचे सतत धार न होने की अभी भी बह रही है । वह न होना ही स्वयं को जानना है । वह न होना ही परमात्मा को पहचान लेना है । बुद्ध ने उसे निर्वाण कहा है। 'झूठा बड़प्पन मिले, भिक्षुओं में अगुआ होऊं, मठों का अधिपति बनूं, गृहस्थ परिवारों में पूजा जाऊं, गृही और भिक्खु मेरे किए हुए को प्रमाण मानें, कार्याकार्य में सब मेरे अधीन चलें, इस प्रकार मूढ़ का संकल्प इच्छा और अभिमान ही बढ़ाता है।' मूढ़ अगर संन्यास भी ले ले तो संन्यास भी उसकी मूढ़ता ही एक आभूषण जाता है। मूढ़ अगर प्रार्थना भी करे, तो प्रार्थना भी अहंकार को ही सजाने वाली बन जाती है। मूढ़ अगर मंदिर भी जाता है तो देखता हुआ जाता है, कि लोगों ने देख लिया कि नहीं ! मूढ़ अगर मंदिर में पूजा भी करता है तो बड़े शोरगुल से करता है, ताकि सारे गांव को पता चल जाए कि मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूं, पूजा करने वाला हूं, प्रार्थना करने वाला हूं। अन्यथा प्रार्थना को जोर-जोर से करने की कोई बात नहीं । परमात्मा तो तुम्हारे हृदय की भावदशा को भी समझ लेता है । चिल्लाते किसलिए हो ? शोरगुल किसलिए मचाते हो ? जो तुम्हारे भीतर उठा, उठने के पहले भी परमात्मा की समझ में आ जाता है। तुमने कहानी सुनी है ? एक बूढ़ी औरत बड़ा बोझ लिए सिर पर जाती है। एक घुड़सवार पास से निकला। तो उस बूढ़ी औरत ने कहा कि बेटा, बोझ बड़ा है, इसे तू ले ले; और आगे चार मील बाद, चुंगी पर दे जाना। मैं जब वहां पहुंचूंगी तो ले लूंगी। । घुड़सवार अकड़ा – घुड़सवार ! उसने कहा, क्या समझा है तूने? मैं तेरा कोई गुलाम हूं? कोई नौकर-चाकर हूं ? ढो अपना बोझ । यह गंदी गठरी मैं कहां ले जाऊंगा ? एड़ मारी, आगे बढ़ गया। लेकिन कोई दो फर्लांग गया होगा, उसे खयाल आया कि गठरी लेकर चल ही देते। चुंगी चौकी वाले को क्या पता? नाहक गठरी गंवाई। पता नहीं क्या हो ! लौटकर आया, कहा: मां, भूल हो गई। तू निश्चित बूढ़ी · है और बोझ ज्यादा है। दे दे, चुंगी चौकी पर दे जाऊंगा। उस बूढ़ी ने कहा: बेटा, अब तू चिंता मत कर। जो तुझसे कह गया, वह मुझसे भी कह गया है। तू अपनी राह ले, अब मैं ढो लूंगी। तुम्हारे हृदय में जो उठती है बात, तुम्हारे जानने के पहले भी परमात्मा तक पहुंच जाती है। क्योंकि तुम अपने हृदय से बहुत दूर हो, परमात्मा तुम्हारे हृदय में विराजमान है। प्रार्थना को चिल्ला-चिल्लाकर करने की कोई बात नहीं । कहने की बात ही नहीं है कुछ। कहने को क्या है? परमात्मा के सामने सिर झुकाकर बैठ जाना है । असहाय होकर, प्यासे होकर, उसके हाथों में अपने को छोड़ देना है। नहीं, लेकिन जब तक रथयात्रा न निकले, शोभायात्रा न हो, तब तक उपवास करने में मजा नहीं आता। और जब तक प्रार्थना के लिए सत्कार-अभिनंदन न मिले, 167
SR No.002380
Book TitleDhammapada 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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