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________________ लाभ-पथ नहीं, निर्वाण-पथ जैसे विनम्रता आखिरी गहराइयां छूती हो। मिटकर आया। और जो मिटकर आया, वही होकर आया। अपने को खोकर आया। शास्त्र का बोझ नहीं था अब, सत्य की निर्भार दशा थी। विचारों की भीड़ न थी अब, ध्यान की ज्योति थी। भीतर एक विराट शून्य था। भीतर एक मंदिर बनाकर आया। एक पूजागृह का भीतर जन्म हुआ। __ 'मूढ़ का जितना भी ज्ञान होता है, वह उसके ही अनर्थ के लिए होता है।' मूढ़ जो भी सीख लेता है, उस सीख से रूपांतरित नहीं होता, बदलता नहीं अपने को; उस सीख से अपने पुराने ढंग को और मजबूत कर लेता है। इससे तो न जानता तो ही बेहतर था। कम से कम अज्ञान की लोचपूर्णता तो होती! अब ज्ञान की अकड़ भी आ गई और ज्ञान भी हाथ न आया। जानने का भ्रम आ गया, जाना कुछ भी नहीं। मूढ़ का सब जानना उधार है। और जब तक जीवंत बोध न हो, जब तक तुम्हें ही स्वाद न लग जाए सत्य का, तब तक मत समझना कि जाना। तब तक जानना कि यात्रा अभी और करनी है; अभी मंजिल आई नहीं। कैसे मूढ़ अनर्थ करता है अपना ही अपने ही ज्ञान से? मेरे पास बहुत लोग आ जाते हैं; उपनिषद के वचन दोहराते हैं, गीता कंठस्थ है। उनसे कुछ भी कहो, वे कहते हैं, हमें मालूम है। मैं उनसे पूछता हूं, फिर आए क्यों हो? जब तुम्हें मालूम ही है तो तुम व्यर्थ परेशान क्यों हुए हो? क्या कारण है यहां आने का? ___ कहते हैं, नहीं, मन हो गया, जिज्ञासावश चले आए। ध्यान सीखना है। मैं कहता हूं, तुम्हें उपनिषद के वचन मालूम हैं। ये वचन बिना ध्यान के तो आते ही नहीं। इनका तो जन्म ही ध्यान में होता है। ये किताब से नहीं आते। काश, किताब से आते होते तो कितनी सरल हो गई होती बात! जिंदगी में फिर उलझाव क्या था? किताब से अगर परमात्मा मिलता होता तो और क्या आसान होता! ध्यान से आते हैं। तो मैं उनसे कहता हूं, अगर ध्यान सीखना है, तो कृपा करके इन वचनों को हटाओ। खाली करो जगह। ये वचन ध्यान न होने देंगे। यह खयाल कि तुम जानते ही हो, जानने की यात्रा पर तुम्हें चलने ही न देगा। जिसको खयाल है, वह पहुंच ही गया, अब चलेगा क्यों? तर्क करते हैं वे, दलीलें देते हैं कि शास्त्र तो मार्गदर्शक है; और शास्त्र तो सहारा है। तो मैं उनसे कहता हूं, जिंदगीभर इस सहारे को तुम पकड़े रहे, अब तक पहुंचे नहीं; कब जागोगे? अब और कितनी देर दोगे परीक्षा के लिए? अभी तक परीक्षा नहीं हो गई? मगर बड़ा कठिन है यह मानना कि मैं अज्ञानी हूं। बड़ा कठिन है। और बिना 161
SR No.002380
Book TitleDhammapada 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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