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________________ एस धम्मो सनंतनो सूखा फूल मिल जाता है I संप्रदाय सूखे फूल हैं, शास्त्र किताबों में दबे हुए सूखे फूल हैं। उनसे न गंध आती है, न उनमें जीवन का उत्सव है, न उनसे परमात्मा का अब कोई संबंध है। क्योंकि उनकी कहीं जड़ें नहीं अब, पृथ्वी से कहीं वे जुड़े नहीं, आकाश से जुड़े नहीं, सूर्य से उनका कुछ अब संवाद नहीं, सब तरफ से कट गए, टूट गए, अब तो शास्त्र में पड़े हैं। सूखे फूल हैं। . अगर तुम्हें जिंदा फूल मिल जाए तो सूखे फूल के मोह को छोड़ना । जानता हूं मैं, अतीत का बड़ा मोह होता है। जानता हूं मैं, परंपरा में बंधे रहने में बड़ी सुविधा होती है । छोड़ने की कठिनाई भी मुझे पता है । अड़चन बहुत है । अराजकता आ जाती है। जिंदगी जमीन खो देती है। कहां खड़े हैं, पता नहीं चलता। अकेले रह जाते हैं। भीड़ का संग-साथ नहीं रह जाता। लेकिन धर्म रास्ता अकेले का है। वह खोज तनहाई की है। और व्यक्ति ही वहां तक पहुंचता है, समाज नहीं। अब तक तुमने कभी किसी समाज को बुद्ध होते देखा? किसी भीड़ को तुमने समाधिस्थ होते देखा ? व्यक्ति-व्यक्ति पहुंचते हैं, अकेले-अकेले पहुंचते हैं। परमात्मा से तुम डेपुटेशन लेकर न मिल सकोगे; अकेला ही साक्षात्कार करना होगा। संगठित धर्म धर्म नहीं रहा, समाज का हिस्सा हो गया; रीति-रिवाज हो गया, क्रांति नहीं । जीवंत धर्म समाज का हिस्सा नहीं है; व्यक्ति के भीतर की आग है। इसलिए जो दिल वाले हैं, जिगर वाले हैं, बस उनकी ही बात है। हमें दैरो-हरम के तफरकों से काम ही क्या है मंदिर और मस्जिद के झगड़ों से मतलब क्या है ? संप्रदायों के ऊहापोह से प्रयोजन क्या है ? सिद्धांतों की रस्साकशी में पड़ने की जरूरत क्या है ? हमें दैरो - हरम के तफरकों से काम ही क्या है सिखाया है किसी ने अजनबी बनकर गुजर जाना मंदिर और मस्जिद से अपने दामन को बचाकर गुजर जाना; कहीं उलझ मत बैठना कांटों में। जहां भी तुम्हें लगे कि मुर्दा है, लाश है, वह कितने ही प्यारे आदमी की हो, इससे क्या फर्क पड़ता है। अपनी मां मर जाती है तो उसको भी दफना आते हैं; प्यारी थी, दफनाने की बात ही नहीं जंचती, बात ही कठोर लगती है; इधर मरी नहीं, वहां अर्थी सजने लगती है, चले मरघट ! रोते जाते हैं, लेकिन जाना तो पड़ता है मरघट। आंसू बहाते हैं, लेकिन आग तो लगानी पड़ती है चिता में । ऐसी ही समझ और ऐसी ही हिम्मत मुर्दा धर्मों के साथ भी होनी चाहिए। जो मर गए, अब उनसे कुछ होता नहीं। कभी उनसे हुआ था— मैं यह नहीं कहता – कभी उनसे बड़ी क्रांति घटी थी, अन्यथा वे इतने दिन जिंदा कैसे रह जाते ? मरकर भी इतने दिन तक जिंदा कैसे रहते ? लाश को भी कोई बचाता क्यों ? लाश बड़ी प्यारी रही 138
SR No.002380
Book TitleDhammapada 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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