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________________ मौन में खिले मुखरता से चला आया, चलाना पड़ता है; एक उत्तरदायित्व का बोध रहता है कि बाप-दादे इसी रास्ते पर चले, अब उनकी लकीर को तोड़ना उचित नहीं है। अब जो नहीं हैं जमीन पर, उनसे बगावत भी क्या करनी! अब जो वे दे गए हैं, बिगड़ता ही क्या है, उसे पूरा कर दो। हर्जा भी तो कुछ नहीं है। लगता भी तो कुछ नहीं है। लोग किए चले जाते हैं। धर्म सिकुड़कर संप्रदाय हो जाता है। धर्म मुक्ति देता है; संप्रदाय बांध लेता है। धर्म मोक्ष जैसा आकाश खोल देता है; धर्म काल-कोठरियां बन जाता है जैसे ही संप्रदाय होता है। संप्रदाय और धर्म बिलकुल विपरीत हैं। इसलिए सजग रहना, क्योंकि वही फिर हो सकता है-वही होगा ही। लेकिन कम से कम तुम सजग रहना। कम से कम तुमसे न हो यह पाप। संप्रदाय समाज का हिस्सा है; धर्म व्यक्ति की क्रांति। बुद्ध पुरुष बोलते हैं और तत्क्षण नेतागण पकड़ लेते हैं। इसे खयाल में रखना। बुद्ध ने जो बोला, वह तत्क्षण बुद्ध के आसपास नेता होने की प्रवृत्ति के जो लोग थे उन्होंने पकड़ लिया। उन्होंने गिरोह बनाना शुरू कर दिया। उन्होंने संगठन खड़ा करना शुरू कर दिया। उन्होंने शास्त्र निर्मित करना शुरू कर दिया। उन्होंने मंदिर बनाना शुरू कर दिया। कारवां लग चुका है रस्ते पर फिर कोई रहनुमां न आ जाए ध्यान रखना, जब तुम मंजिल के करीब पहुंच रहे हो, तब नेताओं से बचना। कारवां लग चुका है रस्ते पर फिर कोई रहनुमां न आ जाए फिर कोई नेता न आ जाए कि तुम्हें मार्ग बताने लगे। बुद्ध पुरुष नेतृत्व नहीं करते; बुद्ध पुरुष आदेश भी नहीं देते—बुद्ध पुरुष सिर्फ उपदेश देते हैं। उपदेश का अर्थ है : कह दिया तुमसे; मान लो मर्जी, न मानो मर्जी। कह दिया तुमसे; फिर मत कहना कि नहीं कहा था। कह दिया तुमसे; लेकिन कोई जबर्दस्ती नहीं है कि तुम्हें मानना ही पड़ेगा। आग्रह नहीं है। जैसे ही उपदेश में आग्रह हो जाता है, उपदेश भ्रष्ट हो जाता है। सत्य का कोई आग्रह नहीं होता। सत्याग्रह जैसा झूठा कोई शब्द नहीं है। सत्य का तो निवेदन होता है, आग्रह क्या होगा! आदेश की तो बात ही नहीं है। धर्म कोई सैन्य-प्रशिक्षण नहीं है कि आदेश हो। नेता आदेश देते हैं कि ऐसा करो। बुद्ध पुरुष कहते हैं कि ऐसा हमें हुआ, सुनो। करने की बात ही नहीं है, होने की बात है। और इसलिए अगर कभी तुम्हें कोई जीवित गुरु मिल जाए, तो उन क्षणों को मत चूकना। मुर्दा संप्रदायों से तुम्हें कुछ भी न मिलेगा। मुर्दा संप्रदाय ऐसे हैं जैसे तुम कभी-कभी फूलों को किताब में रख देते हो, सूख जाते हैं, गंध भी खो जाती है, सिर्फ एक याददाश्त रह जाती है। फिर कभी वर्षों बाद किताब खोलते हो, एक 137
SR No.002380
Book TitleDhammapada 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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