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________________ पुण्यातीत ले जाए, वही साधु-कर्म लगे, अपने ही अतीत से पीड़ा और परेशानी होने लगे, अपने ही अतीत से घबड़ाहट होने लगे, अपना ही अतीत बोझ हो जाए, छाती पर पत्थर की तरह बैठ जाए, अपना ही अतीत गले में फांसी की तरह लग जाए तो समझना कि पाप किया। अतीत के लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता। करने की कोई जरूरत नहीं है। जागकर वर्तमान को बदल लेना। जो हो गया हो गया, उससे घबड़ाना भी मत; उसको मिटाने की चेष्टा में भी मत लगना, क्योंकि वह व्यर्थ चेष्टा है। तुम तो वर्तमान में जाग जाना और वर्तमान में ऐसे जीने लगना कि तुम्हारा जीवन सुख से भर जाए। पुण्य सुख की कुंजी है, पाप दुख की। स्वभावतः जब तुम सुखी होते हो, तुमसे दूसरों को सुख मिलता है। क्योंकि दूसरों को तुम वही दे सकते हो जो तुम्हारे पास है। तुम वही बांट सकते हो जो तुम्हारे पास है। हम अपने को ही बांटते चलते हैं। और उपाय भी नहीं है कोई। अगर तुम्हारे भीतर गीत है तो तुम गुनगुनाओगे, किसी के कान पर गीत की कड़ी पड़ेगी। और तुम्हारे भीतर गाली है, तो भी-तो भी बाहर आ जाएगी, किसी के कान पर पड़ेगी। असली सवाल भीतर का है। अपने माजी के तसव्वुर से हिरासां हूं मैं अपने गुजरे हुए ऐयाम से नफरत है मुझे अपनी बेकार तमन्नाओं पे शरमिंदा हूं अपनी बेसूद उम्मीदों पे नदामत है मुझे मेरे माजी को अंधेरे में दबा रहने दो, मेरा माजी मेरी जिल्लत के सिवा कुछ भी नहीं मेरी उम्मीदों का हासिल मेरी काविश का सिला एक बेनाम अजीयत के सिवा कुछ भी नहीं तुम भी सोचोगे अतीत के संबंध में, तो ऐसा ही पाओगेः एक बोझ! एक व्यर्थ का बोझ! टूटी हुई आशाएं! खंडित वासनाएं! व्यर्थ के पाप-न किए होते तो चल जाता। व्यर्थ के झूठ-न बोले होते तो चल जाता। दो दिन की जिंदगी चल ही जाती है। व्यर्थ दिए हुए कष्ट, व्यर्थ चारों तरफ बोए हुए कांटे, अपनी ही राह पर लौट-लौटकर आ जाते हैं। फूल भी बो सकते थे। उतना ही समय लगता है। सच तो यह है, जैसा मैंने जाना, थोड़ा कम समय लगता है फूल बोने में। __फूल बड़ी नाजुक चीज है, जल्दी निकल आती है। कांटा बड़ा कठोर है, बड़ी देर लगती है। कांटों को सम्हालने में आदमी अपना सब गंवा देता है। फूल सरलता से निकल आते हैं। आसान था कि तुमने फूल बो लिए होते। कठिन था कांटों को बनाना। कठिन था कांटों को अपने भीतर ढालना, क्योंकि तुम्हें चुभेगे भी। कांटों को जो ढालेगा, लहूलुहान होगा। मगर कठिन तुम कर गुजरे। पीछे लौटकर अधिकांश लोगों को बस ऐसा ही प्रतीत होता है अपने माजी के तसव्वुर से हिरासां हूं मैं 103
SR No.002380
Book TitleDhammapada 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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