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________________ एस धम्मो सनंतनो पछताओगे, कि छिपाओगे, कि चाहोगे हजार-हजार मन से कि न किया होता; कि चाहोगे कि किसी तरह लौट जाएं और अनकिया कर दें। मगर समय में लौटने का कोई उपाय नहीं। जो हो चुका हो चुका; उसे मिटाने का, पोंछने का ऐसा कोई सीधा उपाय नहीं। पछतावा ही रह जाएगा। पाप का स्वाद पश्चात्ताप है; मुंह कडुवाहट से भर जाता है। तो तुम अपने पर ध्यान रखना। यह तो हो सकता है कि तुम्हारे पाप से दूसरे को दुख न मिले; क्योंकि दूसरा दुख ले या न ले, यह उसकी स्वतंत्रता है। दूसरा राजी हो न राजी हो, यह उसकी मौज है। कोई किसी को दुख जबर्दस्ती नहीं दे सकता। न कोई किसी को सुख जबर्दस्ती दे सकता है। जबर्दस्ती यहां चलती ही नहीं। प्रत्येक के भीतर परम स्वातंत्र्य है। ___तुम अगर किसी बुद्ध पुरुष को गालियां भी दे दोगे तो बुद्ध को तुम दुख न दे पाओगे। तुमने तो दिया था, बुद्ध तक न पहुंचा। तुमने तो दिया था, उन्होंने न लिया। तो तुम करोगे क्या? तुमने तो लाख कोशिश की थी। तुमने तो बहुत उपाय किए थे। लेकिन सब असफल हो जाता है। बुद्ध पुरुष हंसते ही खड़े रहते हैं। ___ तो जरूरी नहीं है कि तुम्हारा पाप दूसरे को दुख दे ही। साधारणतः देता है, क्योंकि दूसरे दुख पाने को तैयार हैं। इसे ठीक से समझ लेना। साधारणतः देता ही है। लेकिन देने के कारण तुम नहीं हो, दूसरे लेने को तैयार हैं। तुम न देते तो वे किसी और से ले लेते। हजार दुकानें हैं, तुम्हारी ही दुकान नहीं। कहीं और से खरीद लेते। तुम्हारी गाली न मिली होती तो किसी और से गाली ले लेते। अगर कोई देने वाला न होता तो खुद को दे लेते। मगर दुख तो वे पाते। दुख पाने की उनकी तैयारी थी। दुख पाने की उनकी आकांक्षा थी। तुमने तो सिर्फ सहारा दिया। तुम तो सिर्फ बहाने बने। तुम तो सिर्फ खंटी बने, कोट तो उन्हें टांगना ही था; कहीं भी टांग लेते, खूटी न मिलती, द्वार-दरवाजे पर टांग लेते। वे टांगकर रहते। दूसरे को दुख देना असली बात नहीं है। दूसरे को दुख मिलता है, यह सच है। वह उसको अपने कारण मिलता है। इसलिए पाप का कोई सीधा संबंध दूसरे से नहीं है। वहां भूल हो गई है। वहां तुम्हारे धर्मगुरु तुम्हें समझाए चले जाते हैं, दूसरे को दुख मत दो। वहां भी नजर दूसरे पर है। संसार की भी नजर दूसरे पर और धर्म की भी नजर दूसरे पर, तो दूसरे से छुटकारा है या नहीं? ___ नहीं, धर्म का कुछ लेना-देना नहीं दूसरे से। धर्म की नजर अपने पर है। अपने को दुख मत देना, मैं तुमसे कहता हूं, और तुम पुण्यात्मा हो। अपने को दुख मत देना। इस भांति जीना कि अतीत के पछतावे का कारण न रह जाए, लौटकर देखने की जरूरत भी न हो। इस भांति जीना कि कभी मन में ऐसा खयाल भी न उठे कि कुछ अनकिया करना है, तो तुम्हारा जीवन पुण्य का जीवन है। अगर तुम्हें लौट-लौटकर पछतावा हो, अगर पीछे लौटकर देखने में डर लगने 102
SR No.002380
Book TitleDhammapada 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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