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एस धम्मो सनंतनो
मांग न रहे-क्योंकि तुम जाग गए कि मिलना किसी से कुछ भी नहीं है तो तुम अचानक पाओगे तुम्हारे जीवन से दुख विसर्जित हो गया। अब कोई दुख नहीं देता।
सुख न मांगो तो कोई दुख नहीं देता। तब तो बड़ी अभूतपूर्व घटना घटती है। तुम सुख नहीं मांगते, कोई दुख नहीं देता। न बाहर से सुख आता है, न दुख आता है। पहली बार तुम अपने में रमना शुरू होते हो। क्योंकि अब बाहर नजर रखने की कोई जरूरत ही न रही। जहां से कुछ मिलना ही नहीं है, जहां खदान थी ही नहीं, सिर्फ धोखा था, आभास था, तुम आंख बंद कर लेते हो।
इसलिए बुद्धपुरुषों की आंख बंद है। वह जो बंद आंख है ध्यान करते बुद्ध की, या महावीर की, वह इस बात की खबर है केवल कि अब बाहर देखने योग्य कुछ भी न रहा। जब पाने योग्य न रहा, तो देखने योग्य क्या रहा? देखते थे, क्योंकि पाना . था। पाने का रस लंगा था, तो गौर से देखते थे। जो पाना हो, वही आदमी देखता है। जब पाने की भ्रांति ही टूट गई तो आदमी आंख बंद कर लेता है। बंद कर लेता है कहना ठीक नहीं, आंख बंद हो जाती है। पलक अपने आप बंद हो जाती है। फिर आंख को व्यर्थ ही दुखाना क्या? फिर आंख को व्यर्थ ही खोलकर परेशान क्या करना? और यह जो दृष्टि पर पलक का गिर जाना है, यही भीतर दृष्टि का पैदा हो जाना है। ___ जिसके चित्त में राग नहीं और इसलिए जिसके चित्त में द्वेष नहीं, जो पाप-पुण्य से मुक्त है, उस जाग्रत पुरुष को भय नहीं।'
पाप और पुण्य, वे भी बाहर से ही जुड़े हैं, जैसे सुख और दुख। इसे थोड़ा समझना। यह और भी सूक्ष्म, और भी जटिल है। यह तो बहुत लोग तुम्हें समझाते मिल जाएंगे कि सुख-दुख बाहर से मिलते नहीं, सिर्फ तुम्हारे खयाल में हैं। लेकिन जो लोग तुम्हें समझाते हैं बाहर से सुख न मिलेगा, और इसलिए बाहर से दुख भी नहीं मिलता, वे भी तुमसे कहते हैं, पुण्य करो, पाप न करो। शायद वे भी समझे नहीं। क्योंकि समझे होते तो दूसरी बात भी बाहर से ही जुड़ी है। क्या है दूसरी बात? वह पहली का ही दूसरा पहल है।
पहला है, दूसरे से मुझे सुख मिल सकता है। मिलता है दुख। इसलिए राग बांधता हूं और द्वेष फलता है। बोता राग के बीज हूं, फसल द्वेष की काटता हूं। चाहता हूं राग, हाथ में आता है द्वेष। तड़फड़ाता हूं। जैसे बुद्ध ने कहा, कोई मछली को सागर के बाहर कर दे। तट पर तड़फड़ाए। ऐसा आदमी तड़फड़ाता है। ___फिर पाप-पुण्य क्या है? पाप-पुण्य इसका ही दूसरा पहलू है। पुण्य का अर्थ है, मैं दूसरे को सुख दे सकता हूं। पाप का अर्थ है, मैं दूसरे को दुख दे सकता हूं। तब तुम्हें समझ में आ जाएगा। दूसरे से सुख मिल सकता है यह, और मैं दूसरे को सुख दे सकता हूं यह, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हुए। दूसरा मुझे दुख देता है यह, और मैं दूसरे को दुख दे सकता हूं यह भी, उसी बात का पहलू हुआ।
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