SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अंतर्बाती को उकसाना ही ध्यान रोज नए होते चले जाओ । छोटा-छोटा कुआं भी छोटा थोड़े ही है । अनंत सागर से जुड़ा है। भीतर से झरनों के रास्ते हैं। इधर खाली करो, उधर भरता चला जाता है। आत्मा ही थोड़े ही हो, परमात्मा भी हो। तुम छोटे कुएं ही थोड़े ही हो, सागर भी हो। सागर ही छोटे से कुएं में से झांक रहा है। छोटा कुआं एक खिड़की है जिससे सागर झांका। तुम भी एक खिड़की हो, जिससे परमात्मा झांका। एक बार अपनी सुध आ जाए, एक बार यह खयाल आ जाए कि मेरा सुख मुझ में है, तो राग समाप्त हो जाता है। 'जिसके चित्त में राग नहीं...। '' अर्थात जिसने जान लिया कि सुख मेरा भीतर है। इसलिए जिसके चित्त में द्वेष भी नहीं है। स्वभावतः, जब दूसरे से सुख मिलता ही नहीं, तो कैसी शिकायत, कैसा शिकवा कि दूसरे से दुख मिला? यह बात ही फिजूल हो गई। सुख का खयाल था तो ही दुख का खयाल बनता था। जिससे तुम जितनी ज्यादा अपेक्षा रखते हो उससे उतना ही दुख मिलता है। लोग मुझसे पूछते हैं कि पति-पत्नी एक-दूसरे के कारण इतने दुखी क्यों होते हैं ? तो मैं उनसे कहता हूं, वह संबंध ऐसा है जहां सबसे ज्यादा अपेक्षा है, इसलिए । जितनी अपेक्षा, उतनी मात्रा में दुख होगा। क्योंकि उतनी असफलता हाथ लगेगी। राह पर चलता आदमी अचानक तुम्हारे पास से गुजर जाता है, उससे दुख नहीं मिलता । मिलने का कोई कारण नहीं, अजनबी है। अपेक्षा ही कभी नहीं की थी। और अगर अजनबी मुस्कुराकर देख ले, तो अच्छा लगता है। तुम्हारी पत्नी मुस्कुराकर देखे, पति मुस्कुराकर देखे, तो भी कुछ अच्छा नहीं लगता। लगता है जरूर कोई जालसाजी होगी। पत्नी मुस्कुरा रही है ! मतलब कहीं बाजार में साड़ी देख आई है? या कहीं गहने देख लिए? या कोई नया उपद्रव है ? क्योंकि सस्ता नहीं है मुस्कुराना, कोई मुफ्त नहीं मुस्कुराता । जहां संबंध हैं वहां तो लोग मतलब से मुस्कुराते हैं। पति अगर आज ज्यादा प्रसन्न घर आ गया है, फूल ले आया है, मिठाइयां ले आया है, तो पत्नी संदिग्ध हो जाती है, कि जरूर कुछ ... जरूर कुछ दाल में काला है। किसी स्त्री को बहुत गौर से देख लिया होगा, प्रायश्चित्त कर है। नहीं तो कभी घर कोई मिठाइयां लेकर आता है ! रहा जिनसे जितनी अपेक्षा है उनसे उतना ही दुख मिलता है। जितनी अपेक्षा है, उतनी ही टूटती है । जितना बड़ा भवन बनाओगे ताश के पत्तों का, उतनी ही पीड़ा होगी। क्योंकि गिरेगा। उतना श्रम, उतनी शक्ति, उतनी अभीप्साओं के इंद्रधनुष, सब टूट जाएंगे। सब जमीन पर रौंदे हुए पड़े होंगे, उतनी ही पीड़ा होगी। अजनबी से दुख नहीं मिलता। अपरिचित से दुख नहीं मिलता। क्योंकि अपेक्षा जरूरी है । लेकिन अगर तुम अपेक्षा ही छोड़ दो, तो तुम्हें क्या कोई दुख दे सकेगा? इसे बहुत सोचना। इस पर मनन करना, ध्यान करना । अगर तुम अपेक्षा छोड़ दो, कोई 59
SR No.002379
Book TitleDhammapada 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy