SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एस धम्मो सनंतनो मिलेगा? हां, भगवान मिल जाता है तो भय खो जाता है। भगवान और भय साथ-साथ नहीं हो सकते। यह तो ऐसे ही है जैसे अंधेरा और प्रकाश साथ-साथ रखने की कोशिश करो। तुम्हारी प्रार्थनाएं भी भय से आविर्भूत होती हैं। इसलिए व्यर्थ हैं। दो कौड़ी का भी उनका मूल्य नहीं है। तुम मंदिर में झुकते भी हो तो कंपते हुए झुकते हो। यह प्रेम का स्पंदन नहीं है, यह भय का कंपन है। __ बड़ा फर्क है दोनों में। __ जब प्रेम उतरता है हृदय में, तब भी सब कंप जाता है। लेकिन प्रेम की पुलक! कहां प्रेम की पुलक, कहां भय का घबड़ाना, कंपना! ध्यान रखना, प्रेम की भी एक ऊष्मा है और बुखार की भी। और प्रेम में भी एक गरमाहट घेर लेती है और बुखार में भी। तो दोनों को एक मत समझ लेना। भय में भी आदमी झुकता है, प्रेम में भी। पर दोनों को एक मत समझ लेना। भयभीत भी प्रार्थना करने लगता है, प्रेम से भरा भी। लेकिन भयभीत की प्रार्थना अपने भीतर घृणा को छिपाए होती है। क्योंकि जिससे हम भय करते हैं उससे प्रेम हो नहीं सकता। ___ इसलिए जिन्होंने भी तुमसे कहा है, भगवान से भय करो, उन्होंने तुम्हारे अधार्मिक होने की बुनियाद रख दी। मैं तुमसे कहता हूं, सारी दुनिया से भय करना, भगवान से भर नहीं। क्योंकि जिससे भय हो गया, उससे फिर प्रेम के, आनंद के संबंध जुड़ते ही नहीं। फिर तो जहर घुल गया कुएं में। फिर तो पहले से ही तुम विषाक्त हो गए। फिर तुम्हारी प्रार्थना में धुआं होगा, प्रेम की लपट न होगी। फिर तुम्हारी प्रार्थना से दुर्गंध उठ सकती है। और तुम धूप और अगरबत्तियों से उसे छिपा न सकोगे। फिर तुम फूलों से उसे ढांक न सकोगे। फिर तुम लाख उपाय करो, सब उपाय ऊपर-ऊपर रह जाएंगे। थोड़ा सोचो, जब भीतर भय हो तो कैसे प्रार्थना पैदा हो सकती है? ___ इसलिए बुद्ध ने परमात्मा की बात ही नहीं की। अभी तो प्रार्थना ही पैदा नहीं हुई तो परमात्मा की क्या बात करनी? अभी आंख ही नहीं खुली तो रोशनी की क्या चर्चा करनी? अभी चलने के योग्य ही तुम नहीं हुए हो, घुटने से सरकते हो, अभी नाचने की बात क्या करनी? प्रार्थना पैदा हो तो परमात्मा। लेकिन प्रार्थना तभी पैदा होती है जब अभय-फियरलेसनेस। यहां एक बात और समझ लेनी जरूरी है। अभय का अर्थ निर्भय मत समझ लेना। ये बारीक भेद हैं और बड़े बुनियादी हैं। निर्भय और अभय में बड़ा फर्क है। जमीन-आसमान का फर्क है। शब्दकोश में तो दोनों का एक ही अर्थ लिखा है। जीवन के कोश में दोनों के अर्थ बड़े भिन्न हैं। निर्भय का अर्थ है जो भीतर तो भयभीत है, लेकिन बाहर से जिसने किसी तरह इंतजाम कर लिया। जो भीतर तो कंपता है, लेकिन बाहर नहीं कंपता। जिसने न कंपने का अभ्यास कर लिया है। बाहर तक कंपन को आने नहीं देता। जिनको तुम बहादुर कहते हो, वे इतने ही कायर होते हैं, 56
SR No.002379
Book TitleDhammapada 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy