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________________ अंतर्बाती को उकसाना ही ध्यान यह जो भीतर हृदय है, जिसे बुद्ध ने चित्त कहा, जिसे महावीर, उपनिषद और वेद आत्मा कहते हैं, यह अस्तित्व का मंदिर है। ...रूहे-अस्र का मसकन बचाइए दिल बुझ गया तो जानिए अंधेर हो गया अंधेरे की उतनी चिंता मत करिए। अंधेरे ने कब किसी रोशनी को बुझाया है? अंधेरा कितना ही बड़ा हो, एक छोटे से टिम-टिमाते दीए को भी नहीं बुझा सकता। अंधेरे से कभी अंधेर नहीं हुआ है। दिल बुझ गया तो जानिए अंधेर हो गया एक शमा आंधियों में है रोशन बचाइए वह जो भीतर ज्योति जल रही है जीवन की, वह जो तुम्हारे भीतर जागा हुआ है, वह जो तुम्हारा चैतन्य है, बस उसको जिसने बचा लिया। सब बचा लिया। उसे जिसने खो दिया, वह सब भी बचा ले तो उसने कुछ भी बचाया नहीं। फिर तुम सम्राट हो जाओ, तो भी भिखारी रहोगे। और भीतर की ज्योति बचा लो, तो तुम चाहे राह के भिखारी रहो, तुम्हारे साम्राज्य को कोई छीन नहीं सकेगा। सम्राट होने का एक ही ढंग है, भीतर की संपदा को उपलब्ध हो जाना। स्वामी होने का एक ही ढंग है, भीतर के दीए के साथ जुड़ जाना, एक हो जाना। और वह जो भीतर का दीया है, चाहता है प्रतिपल उसकी बाती को सम्हालो, उकसाओ। उस बाती के उकसाने का नाम ही ध्यान है। बाहर के अंधेरे पर जिन्होंने ध्यान दिया, वे ही अधार्मिक हो जाते हैं। और जिन्होंने भीतर के दीए पर ध्यान दिया, वे ही धार्मिक हो जाते हैं। मंदिर-मस्जिदों में जाने से कुछ भी न होगा। मंदिर तुम्हारा भीतर है। प्रत्येक व्यक्ति अपना मंदिर लेकर पैदा हुआ है। कहां खोजते हो मंदिर को? पत्थरों में नहीं है। तुम्हारे भीतर जो परमात्मा की छोटी सी लौ है, वह जो होश का दीया है, वहां है। ये बुद्ध के सूत्र उस अप्रमाद के दीए को हम कैसे उकसाएं उसके ही सूत्र हैं। इन सूत्रों से दुनिया में क्रांति नहीं हो सकती, क्योंकि समझदार दुनिया में क्रांति की बात करते ही नहीं। वह कभी हुई नहीं। वह कभी होगी भी नहीं। समझदार तो भीतर की क्रांति की बात करते हैं, जो सदा संभव हैं। हुई भी है। आज भी होती है। कल भी होती रहेगी। असंभव की चेष्टा करना मूढ़ता है। और असंभव की चेष्टा में जो संभव था वह भी खो जाता है। जो मिल सकता था वह भी नहीं मिल पाता उसकी चेष्टा में जो कि मिल ही नहीं सकता है। संभव की चेष्टा ही समझ का सबूत है। असंभव की चेष्टा ही मूढ़तापूर्ण जीवन है। बुद्ध ने कहा है, 'जिसके चित्त में राग नहीं है, और इसलिए जिसके चित्त में द्वेष नहीं है, जो पाप-पुण्य से मुक्त है, उस जाग्रत पुरुष को भय नहीं।' तुम तो भगवान को भी खोजते हो तो भय के कारण। और भय से कहीं भगवान 55
SR No.002379
Book TitleDhammapada 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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