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उठो... तलाश लाजिम है फूलों में है। अंधे को भी समझ आ जाएगी। बहरे को भी सुनाई पड़ जाएगी । नाचती हुई है, गीत गाती हुई है। अभिव्यक्त है। यह जो मस्ती है, यह मस्ती तभी संभव है जब भीतर होश हो । नहीं तो यह मस्ती पागलपन हो जाएगी।
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पागल और भक्त में फर्क क्या है ? यही । पागल भी कभी नाचता है, मुस्कुराता है, गीता गाता है, लेकिन तुम पहचान लोगे । उसकी आंखों में जरा झांक कर देखना – उसमें बेहोशी तो है, लेकिन भीतर होश का दीया नहीं। भक्त बेहोश भी है और होश का दीया भी सम्हाले है । नाचता भी है, लेकिन दीए की लौ नहीं कंपती भीतर। बाहर नाच चलता है, भीतर सब ठहरा है – अकंप । तभी तो पागल और परमात्मा के दीवाने का फर्क है।
तो तुम्हें कभी-कभी परमात्मा का दीवाना भी पागल लगेगा, क्योंकि पागल और परमात्मा के दीवाने में बाहर तो एक ही जैसी घटना घटती है। और कभी- कभी पागल भी तुम्हें परमात्मा का दीवाना लगेगा।
लेकिन इसका मतलब यही हुआ कि तुम जरा भीतर न गए, बाहर से ही बाहर लौट आए। बाहर-बाहर देखकर लौट आए। जरा भीतर उतरो । जरा दो-चार सीढ़ियां भीतर जाओ। जरा पागल के नाच में और दीवाने - परमात्मा की मस्ती के नाच में जरा गौर करो । स्वाद भिन्न है, रंग-ढंग बड़ा भिन्न है। अलग-अलग अंदाज हैं। लेकिन थोड़ा गौर से देखोगे तो। ऐसे ही राह से चलते हुए देखकर गुजर गए तो भ्रांति हो सकती है। ऊपर से दोनों एक जैसे लगते हैं। पागल सिर्फ पागल है। बेहोश है । भक्त सिर्फ बेहोश नहीं है। बेहोश भी है, और कुछ होश भी है । बेहोशी के भीतर होश का दीया जल रहा है। यही विरोधाभास समझ में नहीं आता ।
फिर एक और विरोधाभास, तो चीजें और जटिल हो जाती हैं।
यह तो भक्त हुआ, फिर ध्यानी हैं । यह तो मीरा हुई, फिर बुद्ध हैं । बुद्ध के बाहर तो कंपन भी न मिलेगा। वे मौजे दरिया नहीं हैं, शांत झील हैं। वे फूल के रंग जैसे बाहर दिखाई पड़ते हैं, ऐसे नहीं हैं। वे ऐसे हैं जैसे बीज में फूल छिपा हो । हजार-हजार रंग भीतर दबाकर बैठे हैं। स्वर हैं बहुत, लेकिन ऐसे जैसे वीणा में सोए हों, किसी ने छेड़े न हों। तो बाहर बिलकुल सन्नाटा है।
तुम बुद्ध के बाहर होश पाओगे, मीरा के बाहर तुम मस्ती पाओगे । बुद्ध के बाहर तुम परम होश पाओगे। वहां जरा भी कंपन न होगा। और जैसे मीरा के बेहोशी में भीतर होश है, ऐसा ही बुद्ध के बाहर के होश में भीतर बेहोशी होगी, क्योंकि दोनों साथ होने ही चाहिए, तभी परिपूर्णता होती है। अगर सिर्फ बाहर का होश ही हो और भीतर बेहोशी न हो, तो यह तो तुम साधारण त्यागी - विरक्त में पा लोगे। इसके लिए बुद्ध तक जाने की जरूरत नहीं। यही तो बुद्धों में और बुद्धों का अनुसरण करने वालों में फर्क है । बुद्ध में और पाखंडी में यही फर्क है।
मीरा और पागल में जैसे फर्क है, बुद्ध और पाखंडी में वैसे फर्क है । पाखंडी
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