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एस धम्मो सनंतनो जो साधन था वही बाधक हो जाएगा।
जो कहा है, वह तो ऐसा ही है—ग गणेश का। वह तो पहली कक्षा के विद्यार्थी की बात है। लेकिन बुद्ध ने पहली कक्षा की बात कही, क्योंकि तुम वहीं खड़े हो। उन्होंने विश्वविद्यालय के आखिरी छोर की बात नहीं कही। वहां तुम कभी पहुंचोगे, तब देखा जाएगा। और वहां पहुंच गए जब तुम, तो कहने की जरूरत नहीं रह जाती, तुम खुद ही देखने में समर्थ हो जाते हो।
शुरुआत है शून्य से, अंत है देखने से। शुरुआत है संदेह से, अंत है श्रद्धा पर। संदेह को कैसे श्रद्धा तक पहुंचाया जाए, नास्तिकता को कैसे आस्तिकता तक पहुंचाया जाए, नहीं को कैसे हां में बदला जाए, यही बुद्ध की कीमिया है, यही बुद्ध-धर्म है। एस धम्मो सनंतनो।
दूसरा प्रश्न:
कल आपने कहा कि मोक्ष, बुद्धत्व की आकांक्षा भी वासना का ही एक रूप है। और फिर कहा, जब तक बुद्धत्व प्राप्त न हो जाए तब तक चैन से मत बैठना। इस विरोधाभास को समझाएं।
मोक्ष की, बुद्धत्व की आकांक्षा भी बुद्धत्व में बाधा है। फिर मैंने तुमसे कहा,
जब तक मोक्ष उपलब्ध न हो जाए तब तक तृप्त होकर मत बैठ जाना। तब तक अभीप्सा करना, तब तक आकांक्षा करना। स्वभावतः विरोधाभास दिखाई पड़ता है। लेकिन मैं यही कह रहा हूं कि जब तक आकांक्षारहितता उपलब्ध न हो जाए तब तक आकांक्षारहितता की आकांक्षा करते रहना। यह विरोधाभास दिखाई पड़ता है, क्योंकि मैं दो तलों को जोड़ने की कोशिश कर रहा हूं। तुम जहां हो उसको, और तुम जहां होने चाहिए उसको जोड़ने की कोशिश कर रहा हूं। इसलिए विरोधाभास।
जैसे कोई बच्चा पैदा हो, अभी जन्मा है, और हमें उसे मौत की खबर देनी हो। यद्यपि जो जन्म गया वह मरने लगा, लेकिन बच्चे को मृत्यु की बात समझानी बड़ी कठिन हो जाएगी। मृत्यु की बात विरोधाभासी मालूम पड़ेगी। अभी तो जन्म ही हुआ है, और यह मौत की क्या बात है? और जन्म के साथ मौत को कैसे जोड़ो? बच्चे को विरोधाभासी लगेगी, लेकिन विरोधाभासी है नहीं। क्योंकि जन्म के साथ ही मौत की यात्रा शुरू हो गई। जो जन्मा, वह मरने लगा।
जितने जल्दी मौत समझाई जा सके उतना ही अच्छा है। ताकि जन्म व्यर्थ न चला जाए। अगर जन्म के साथ ही मौत की समझ आ जाए तो जन्म और मृत्यु के
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