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तथाता में है क्रांति
की तरफ दौड़ने लगे। क्षणभंगुर को न पकड़ा तो शाश्वत को पकड़ने लगे। धन न खोजा तो धर्म को खोजने लगे। लेकिन खोज जारी रही। खोज के साथ तुम जारी रहे, खोज के साथ अहंकार जारी रहा; खोज के साथ तुम्हारी तंद्रा जारी रही, तुम्हारी नींद जारी रही। दिशाएं बदल गयीं, पागलपन न बदला। पागल पूरब दौड़े कि पश्चिम, कोई फर्क पड़ता है? पागल दक्षिण दौड़े कि उत्तर, कोई फर्क पड़ता है ? दौड़ है पागलपन। __ ये तथ्य हैं। और इसलिए झेन में जो बुद्ध-धर्म का सारभूत है-ऐसे उल्लेख हैं हजारों कि बुद्ध के वचन को पढ़ते-पढ़ते, सुनते-सुनते अनेक लोग समाधि को उपलब्ध हो गए हैं। दूसरे धर्मों के लोग यह बात समझ नहीं पाते हैं, कि यह कैसे होगा? सिर्फ सुनते-सुनते?
बुद्ध का सर्वश्रेष्ठ शास्त्र है-भारत से संस्कृत के रूप खो गए हैं, चीनी और तिब्बती से उसका फिर से पुन विष्कार हुआ—दि डायमंड सूत्रा। बुद्ध उस सूत्र में सैकड़ों बार यह कहते हैं, कि जिसने इस सूत्र की चार पंक्तियां भी समझ लीं, वह मुक्त हो गया। सैकड़ों बार-एक-दो बार नहीं-करीब-करीब हर पृष्ठ पर कहते हैं। कभी-कभी हैरानी होती है कि वे इतना क्यों इस पर जोर दे रहे हैं। बहत बार उन्होंने उस सूत्र में कहा है। जिससे वे बोल रहे हैं, जिस भिक्षु से वे बात कर रहे हैं, उससे वे कहते हैं, सुन, गंगा के किनारे जितने रेत के कण हैं, अगर प्रत्येक रेत का कण एक-एक गंगा हो जाए तो उन सारी गंगाओं के किनारे कितने रेत के कण होंगे? वह भिक्षु कहता है, अनंत-अनंत होंगे, हिसाब लगाना मुश्किल है। बुद्ध कहते हैं, अगर कोई व्यक्ति उतना अनंत-अनंत पुण्य करे तो कितना पुण्य होगा? वह भिक्षु कहता है, बहुत-बहुत पुण्य होगा, उसका हिसाब तो बहुत मुश्किल है। बुद्ध कहते हैं, लेकिन जो इस शास्त्र की चार पंक्तियां भी समझ ले, उसके पुण्य के मुकाबले कुछ भी नहीं।
जो भी पढ़ेगा वह थोड़ा हैरान होगा कि चार पंक्तियां? पूरा शास्त्र आधा घंटे में पढ़ लो, इससे बड़ा नहीं है। चार पंक्तियां जो पढ़ ले? बुद्ध क्या कह रहे हैं? बुद्ध ने एक नवीन दर्शन दिया है, वह है तथ्य को देख लेने का। बद्ध यह कह रहे हैं, जो चार पंक्तियां भी पढ़ ले, जो मैं कह रहा हूं उसके तथ्य को चार पंक्तियों में भी देख ले, फिर कुछ करने को शेष नहीं रह जाता; बात हो गई। सत्य को सत्य की तरह देख लिया, असत्य को असत्य की तरह देख लिया, बात हो गई। फिर पूछते हो तुम क्या करें, तो मतलब हुआ कि समझे नहीं। समझ लिया तो करने को कुछ बचता नहीं है। क्योंकि करना ही नासमझी है। __वही अर्जुन पूछे चला जाता है कृष्ण से कि अगर मैं ऐसा करूं तो क्या होगा? अगर वैसा करूं तो क्या होगा? और कृष्ण कहते हैं, तू करने की बात ही छोड़ दे, तू करने की बात उस पर छोड़ दे। तू कर ही मत, तेरे करने से सभी गड़बड़ होगा।