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________________ प्रेम की आखिरी मंजिल : बुद्धों से प्रेम सच में ही न हो। तुम आंख झुकाकर किनारों की सोचते रहते हो कि आज नहीं पहुंचे, कल पहुंच जाएंगे। पहुंच जाएंगे। एक बात तो तुमने मान ही रखी है कि किनारा है। ___ मैं तुमसे कहता हूं कि जिसे तुम जिंदगी कहते हो उसका कोई भी किनारा नहीं। वह तटहीन उपद्रव है। कोई किनारा नहीं। कभी कोई वहां किनारे पर नहीं पहुंचा। न एलेक्जेंडर, न नेपोलियन, कभी कोई वहां किनारे पर नहीं पहुंचा। सभी बीच में ही डूबकर मर जाते हैं। कोई थोड़ा आगे, कोई थोड़ा पीछे। लेकिन आगे-पीछे का भी क्या मतलब है, जहां किनारा न हो! किनारा होता, तो कोई किनारे के पास पहुंचकर डूबता तो कहते, थोड़ा आगे। हम बीच मझधार में डूब जाते तो कहते कि थोड़े पीछे। लेकिन सभी जगह बीच मझधार है। बीच मझधार ही है। किनारा नहीं है। और किश्ती की तरफ तो देखो जरा, थेगड़े लगाए चले जाते हो। एक छेद टूटता है, भरते हो। दूसरा खुल जाता है, भरते हो। पानी उलीचते रहते हो। जिंदगी इस टूटी किश्ती के बचाने में ही बीत जाती है। जो जानते हैं वे तूफान के लिए प्रार्थना करते हैं। वे कहते हैं, परमात्मा! मैं जैसा हूं मुझे मिटा, ताकि मैं वैसा हो सकू जैसा तूने चाहा। जिंदगी दरिया-ए-बेसाहिल है और किश्ती खराब __मैं तो घबराकर दुआ करता हूं तूफां के लिए __ और तुम्हारे जीवन में अगर ऐसी प्रार्थना का प्रवेश हो जाए–प्रार्थना यानी मृत्यु की प्रार्थना-और कोई प्रार्थना है भी नहीं। तुमने प्रार्थनाएं की हैं, मुझे भलीभांति पता है। तुम्हारे मंदिरों में मैंने तुम्हारी प्रार्थनाएं भी सुनी हैं। तुम्हारी मस्जिदों में, तुम्हारे गुरुद्वारों में तुम्हारी प्रार्थनाएं खुदी पड़ी हैं। पत्थर-पत्थर पर लिखी हैं। लेकिन तुमने सदा प्रार्थना उसी जिंदगी के लिए की जिसमें कोई किनारा नहीं है। और तुमने सदा प्रार्थना उसी किश्ती को सुधार देने के लिए की, जो न कभी सुधरी है, न सुधर सकती है। तुमने कभी प्रार्थना अपने को डुबा देने के लिए न की। जिसने की, उसकी पूरी हो गई। और जो डूबने को राजी है, मझधार में ही किनारा मिल जाता है। जिसे तुम जिंदगी कहते हो उसका कोई किनारा नहीं। और जिसको मैं परमात्मा कह रहा हूं, वह किनारा ही किनारा है, वहां कोई मझधार नहीं। देखने का ढंग, एक तो अहंकार के माध्यम से देखना है-टूटी किश्ती के माध्यम से-वहां डर ही डर है, मौत ही मौत है। और एक अहंकार को हटाकर देखना है। वहां कोई मौत नहीं, कोई डर नहीं, क्योंकि अहंकार ही मरता है, तुम नहीं। तुम्हारे भीतर तो शाश्वत है। एस धम्मो सनंतनो। तुम्हारे भीतर तो अमृत है। तुम्हारे भीतर तो शाश्वत छिपा है, सनातन छिपा है। अभी मयखाना-ए-दीदार हर जर्रे में खुलता है अगर इंसान अपने आप से बेगाना हो जाए 231
SR No.002379
Book TitleDhammapada 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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