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एस धम्मो सनंतनो
तो तुम जैसे हो वैसी ही हो जाती हैं। इंद्रियां अनुचर हैं। जीवन का इंतजाम बदलना ही साधना है। और यही इंतजाम का आधार है कि मन मालिक न रह जाए, ध्यान मालिक बने।
इसी रफ्तारे-आवारा से भटकेगा यहां कब तक
अमीरे-कारवां बन जा गुबारे-कारवां कब तक कब तक गुजरते हुए कारवां की धूल, पीछे उड़ती धूल, कब तक ऐसे भीड़ के पीछे उड़ती धूल का अनुगमन करता रहेगा? कब तक ऐसे चलेगा मन के पीछे, शरीर के पीछे, इंद्रियों के पीछे? कब तक क्षुद्र का अनुसरण होगा? अमीरे-कारवां बन जा-अब वक्त आ गया कि मालिक बन जा, इस कारवां का पथ-प्रदर्शक बन जा, सारथी बन जा। बहुत दिन अर्जुन रह लिए, कृष्ण बनने का समय आ गया।
कृष्ण और अर्जुन दो नहीं हैं। एक ही व्यक्ति को जमाने के दो ढंग हैं। एक ही चेतना के दो ढंग हैं, दो रूप हैं। रथ तो वही रहेगा, कुछ भी न बदलेगा, कृष्ण को भीतर बिठा दो, अर्जुन को सारथी बना दो, सब डगमगा जाएगा। कुछ तुमने जोड़ा नहीं, कुछ घटाया नहीं।
बुद्ध ने कुछ जोड़ा थोड़े ही है। उतना ही है बुद्ध के पास जितना तुम्हारे पास है। रत्तीभर ज्यादा नहीं। कुछ घटाया थोड़े ही है। रत्तीभर कम नहीं। न कुछ छोड़ा है, न कुछ जोड़ा है, व्यवस्था बदली है। वीणा के तार अलग पड़े थे, वीणा पर कस दिए हैं। या वीणा के तार ढीले थे, उन्हें कस दिया है। जो जहां होना चाहिए था, वहां रख दिया है। जो जहां नहीं होना चाहिए था, वहां से बदल दिया है। सब वही है बुद्ध में, जो तुममें है। अंतर क्या है? संयोजन अलग है। और संयोजन के बदलते ही सब बदल जाता है-सब। तुम भरोसा भी नहीं कर सकते कि तुम्हारा ही संयोजन बदलकर बुद्धत्व पैदा हो जाता है; कि तुम्ही अर्जुन, तुम्हीं कृष्ण। अभी तुम भरोसा भी कैसे करो?
पहले शराब जीस्त थी अब जीस्त है शराब इतना ही फर्क है। पहले शराब जीस्त थी—पहले नशा ही जिंदगी थी। अब जीस्त है शराब-अब जिंदगी ही नशा है। पहले नशा जिंदगी थी, पहले शराब जिंदगी थी, अब जिंदगी शराब है।
कोई पिला रहा है पिए जा रहा हूं मैं बस इतना ही फर्क है। पहले तुम पी रहे थे, कोई पिला न रहा था। और तब शराब जिंदगी मालूम होती थी, बेहोशी जिंदगी मालूम होती थी। अब, अब जिंदगी ही शराब है। अब जीवन का उत्सव है, आनंद है, और अब तुम नहीं पी रहे हो
कोई पिला रहा है पिए जा रहा हूं मैं संयोजन बदला कि अहंकार गया। कृष्ण रथ में बैठ जाएं, अर्जुन सारथी बन जाए, अहंकार परिणाम होगा। अर्जुन रथ में बैठे, कृष्ण सारथी बनें, निरअहंकार