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________________ एस धम्मो सनंतनो इसीलिए रात है। जो जागा, उसने सदा पाया कि सहर थी, सुबह थी। जो सोया, उसने समझा सदा कि रात है। तुम्हारी आंख बंद है, इसलिए अंधेरा है। अस्तित्व प्रकाशवान है। अस्तित्व प्रकाश है। हजार-हजार सूरज उगे हैं। सब तरफ प्रकाश की बाढ़ है। प्रकाश की ही तरंगें तुमसे आकर टकरा रही हैं, लेकिन तुम आंख बंद किए हो। छोटी सी पलकें आंख पर पड़ी हों, तो विराट सूरज ढंक जाता है। जरा सी कंकड़ी आंख में आ जाए तो सारा संसार अंधकार हो जाता है। बस छोटी सी ही कंकड़ी आंख में पड़ गई है। छोटा सा ही धूल का कण आंख में पड़ गया है। उसे अहंकार कहो, अज्ञान कहो, निद्रा कहो, प्रमाद कहो, पाप कहो, जो मर्जी हो वह नाम दे दो, बात कुल इतनी है और छोटी है कि तुम्हारी आंख किसी कारण से बंद है। आंख खुली, सुबह हुई-अरे चौंक, सहर हो गई है और तू सो रहा है! और यह सहर सदा से ही रही है। क्योंकि बुद्ध पच्चीस सौ साल पहले जागे और पाया कि सहर हो गई है। कृष्ण पांच हजार साल पहले जागे और पाया कि सहर हो गई है। जब भी कोई जागा, उसने पाया कि सुबह हो गई है। जो सोए हैं वे अभी भी सोए हैं। वे हजारों वर्ष और भी सोए रहेंगे। तुम्हारे सोने में ही रात है। रात के कारण तुम नहीं सो रहे हो; सो रहे हो इसीलिए रात है। सुबह के कारण तुम न जागोगे, क्योंकि सुबह तो सदा से है। तुम जागोगे तो पाओगे कि सुबह है। __ लोग पूछते हैं, परमात्मा कहां है? पूछना चाहिए, हमारे पास आंखें कहां हैं? लोग पूछते हैं, परमात्मा को कहां खोजें? उन्हें पूछना चाहिए, यह खोजने वाला कौन है? कौन खोजे परमात्मा को? लोग पूछते हैं, हमें परमात्मा पर भरोसा नहीं आता, क्योंकि जो दिखाई नहीं पड़ता उसे हम कैसे माने? उन्हें पूछना चाहिए कि हमने अभी आंख खोली है या नहीं? क्योंकि बंद आंख कोई कैसे दिखाई पड़ेगा? परमात्मा द्वार पर ही खड़ा है। क्योंकि जो भी है वही है। अरे चौंक, सहर हो गई है! परमात्मा द्वार पर ही खड़ा है। कभी द्वार से क्षणभर को नहीं हटा है। क्योंकि उसके अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। __ अस्तित्व सुबह है, प्रभात है, सूर्योदय है। सवाल तुम्हारी आंख के खुल जाने का है। और तुम्हारी आंख जब खुलती है तो ऐसी ही घटना घटती है जैसे फूल की पखुड़ियां खुल जाएं। तुम्हारी पलकें पखुड़ियां हैं। जैसे फूल की पखुड़ियां खुल जाएं और सुगंध मुक्त हो जाए। लेकिन छोटे-छोटे फूल हैं, जूही के, तगर के, बेला के, गुलाब के, कमल के, उनकी सामर्थ्य बड़ी छोटी है। उनकी सीमा है। थोड़ी सी गंध को लेकर वे चलते हैं। उसे लटा देते हैं, रिक्त हो जाते हैं, फिर मिट्टी में गिर जाते हैं। लेकिन तुम कुछ ऐसी गंध लेकर चले हो, जिसकी कोई सीमा नहीं। तुम अपनी बूंद में सागर लेकर चले 204
SR No.002379
Book TitleDhammapada 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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