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________________ एस धम्मो सनंतनो अभाव का द्योतक है। पहले से सब पक्का कर लेना है-कहां जा रहे हैं? क्यों जा रहे हैं? क्या प्रयोजन है? अपना कोई लाभ है, नहीं है? कहीं ले जाने वाला अपना ही कोई लाभ तो नहीं देख रहा है? कहीं ले जाने वाला धोखा तो नहीं दे रहा है? बुद्धि आत्मरक्षा है और प्रेम आत्मसमर्पण। दोनों साथ-साथ नहीं हो सकते। यही प्रेम का आखिरी इम्तहां है। आखिरी, कि चल पड़ो। और बुद्धि पर कितने दिन भरोसा करके देख लिया, पहुंचे कहां? कितना बुद्धि के साथ हिसाब करके दिख लिया, मंजिल कहीं आती तो दिखाई पड़ती नहीं। झलक भी नहीं मिलती। फिर भी इस पर भरोसा किए जा रहे हो? ठीक-ठीक बुद्धिमान आदमी अपनी बुद्धि पर संदेह करने लगता है। वह बुद्धि की पराकाष्ठा है, जब अपनी बुद्धि पर संदेह आता है। आना चाहिए। सिर्फ बुद्धओं को अपनी बुद्धि पर संदेह नहीं आता। कितने दिन से चलते हो उसी के साथ, कहां पहुंचे हो? फिर भी भरोसा उसी पर है। __जिस दिन भी तुम्हें यह दिखाई पड़ जाएगा उसी दिन जीवन में एक नया मार्ग खुलता है। एक नया द्वार खुलता है। वह हमेशा पास ही था, कोई बहुत दूर न था। बुद्धि, हृदय में फासला ही कितना है? वह पास ही था, अब भी पास है। लेकिन जब तक तुम बुद्धि की ही सुने जाओगे, पूछे चले जाओगे...। यह पूछना आश्वस्त होने की चेष्टा है। कैसे मैं तुम्हें आश्वस्त करूं? कुछ भी मैं कहूं, वह मेरा ही कहना होगा, तुम्हारा अनुभव न बन जाएगा। जब तक तुम्हारा अनुभव न बन जाए, तब तक मुझ पर भरोसा कैसे आएगा? ___ तो दो ही उपाय हैं। या तो तुम जैसे चलते हो वैसे ही चलते रहो। शायद कभी थकोगे, अनंत जन्मों के बाद ऊबोगे, होश आएगा, तो फिर किसी का हाथ पकड़ोगे। वह हाथ अभी भी उपलब्ध है। वह हाथ सदा उपलब्ध रहेगा। उस हाथ का मुझसे या किसी का कोई लेना-देना नहीं है। वह हाथ तो परमात्मा का है। वह परमात्मा का हाथ अनेक हाथों में प्रविष्ट हो जाता है। कभी बुद्ध के हाथ में, कभी मोहम्मद के हाथ में। लेकिन तुम्हारा हाथ उसे पकड़ेगा तभी तो कुछ होगा। और तुम तभी पकड़ोगे जब तुम अज्ञात की यात्रा पर जाने को तैयार हो। मत पूछो, 'कहां ले चले हो बता दो मुसाफिर!' एक तो बताना मुश्किल है। क्योंकि तुम्हारी भाषा में उस जगत के लिए कोई शब्द नहीं है। और बताने पर भी तुम भरोसा कैसे करोगे? पूछो बुद्ध से, वे कहते हैं निर्वाण। पूछो मीरा से, वह कहती है कृष्ण, बैकुंठ। क्या होता है शब्दों को सुनने से। मीरा के चारों तरफ खोजकर देखो, तुम्हें बैकुंठ का कोई पता न चलेगा। क्योंकि बैकुंठ तो मीरा के भीतर है। और जब तक वैसा ही तुम्हारे भीतर न हो जाए, जब तक तुम भी डुबकी न लगा लो! मत पूछो, 'कहां ले चले हो बता दो मुसाफिर, सितारों के आगे ये कैसा जहां है?' 190
SR No.002379
Book TitleDhammapada 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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