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प्रार्थना : प्रेम की पराकाष्ठा
है बुद्ध के बिना, न बुद्ध समझे जा सकते हैं उमर खैयाम के बिना।
मेरी सारी चेष्टा यही है कि जिनको तुमने विपरीत समझा है, उनको तुम इतने गौर से देख लो कि उनकी विपरीतता खो जाए। और अलग-अलग रंगों और रूपों में तुम्हें एक ही सौंदर्य की झलक मिल जाए। मीरा के नाच में अगर तुम्हें बुद्ध बैठे मिल जाएं और बुद्ध की ध्यानस्थ प्रतिमा में अगर तुम्हें मीरा का नाच मिल जाए, तो हाथ लग गई कुंजी। मंदिर का द्वार तुम भी खोलने में समर्थ हो जाओगे। जिन्होंने इससे अन्यथा देखा, उन्होंने देखा नहीं। उन अंधों की बातों में मत पड़ना।
दूसरा प्रश्नः
कुछ दिल ने कहा? कुछ भी नहीं कुछ दिल ने सुना? कुछ भी नहीं ऐसे भी बातें होती हैं? ऐसे ही बातें होती हैं!
एक तो मनुष्य की बुद्धि में चलते हुए विचारों का जाल है। वहां सब
-साफ-सुथरा है। वहां चीजें कोटियों में बंटी हैं, क्योंकि वहां तर्क का साम्राज्य है। और एक फिर हृदय में उठती हुई लहरें हैं। वहां कुछ भी साफ-सुथरा नहीं है। वहां तर्क का साम्राज्य नहीं है। वहां प्रेम का विस्तार है। वहां हर लहर दूसरी लहर से जुड़ी है। वहां कुछ भी अलग-थलग नहीं है, सब संयुक्त है। वहां शून्य भी बोलता है, और बोलना भी सन्नाटे जैसा है। वहां नृत्य भी आवाज नहीं करता, और वहां सन्नाटा भी नाचता है।
तर्क की जितनी कोटियां हैं, जैसे-जैसे तुम हृदय के करीब आते हो, टूटती चली जाती हैं। तर्क के जितने हिसाब हैं, जैसे-जैसे तुम हृदय के करीब आते चले जाते हो, वे हिसाब व्यर्थ होने लगते हैं। जितनी धारणाएं हैं विचार की, वे धारणाएं बस जब तक तुम मस्तिष्क में जीते हो, खोपड़ी ही तुम्हारा जब तक घर है, तब तक अर्थपूर्ण हैं। जैसे ही थोड़े गहरे गए, जैसे ही थोड़ी डुबकी ली, जैसे ही थोड़े अपने में लीन हुए, जैसे ही हृदय के पास सरकने लगे, वैसे ही सब रहस्य हो जाता है। जो जानते थे, पता चलता है वह भी कभी जाना नहीं। जो सोचते थे कभी नहीं जाना, एहसास होता है जानने लगे। ज्ञात छूटता है, अज्ञात में गति होती है। किनारे से नाव मुक्त होती है और उस सागर में प्रवेश होता है, जिसका फिर कोई किनारा नहीं। इस किनारे से नाव मुक्त होती है, उस तरफ जहां फिर कोई दूसरा किनारा नहीं है, तटहीन सागर है हृदय का, वहां बड़ी पहेली बन जाती है।
'कुछ दिल ने कहा? कुछ भी नहीं
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