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प्रार्थना स्वयं मंजिल
तुम्हारे पास आएं और तुमने उनका जल्दी उपयोग न कर लिया, वे जंग खा जाते हैं।
सत्य बड़ी नाजुक चीज है। वह बीज की तरह है। तुम उसे हृदय में ले जाओ तत्क्षण, तो वह अंकुरित हो जाता है। बीज को रखे रहो तिजोड़ियों में सम्हालकर, वह सड़ जाएगा। सारे सत्य तुम्हारे शास्त्रों की तिजोड़ियों में सड़ गए हैं। ऐसा नहीं है कि सत्यों की कोई कमी है। सत्य बहुत हैं। शास्त्र भरे पड़े हैं, लेकिन किसी काम के नहीं रहे। तुम्हारे जीवन के शास्त्र में जब तक कोई सत्य उतरकर खून, मांस, मज्जा न बन जाए, पच न जाए, तुम्हारे रग-रेशे में न दौड़ने लगे, तब तक किसी काम का नहीं है। इसे स्मरण रखना। ___ 'जैसे फूलों से मालाएं बनती हैं, वैसे ही जन्म लेकर प्राणी को बहुत पुण्य करने चाहिए।'
जीवन दो ढंग का हो सकता है। बुद्ध ने बड़ा ठीक प्रतीक चुना है। एक तो जीवन ऐसा होता है जिसको तुम ज्यादा से ज्यादा फूलों का ढेर कह सकते हो। और एक जीवन ऐसा होता है जिसे तुम फूलों की माला कह सकते हो। माला और ढेर में बड़ा फर्क है। माला में एक संयोजन है, एक तारतम्य है, एक संगीत है, एक लयबद्धता है। माला में एकजुटता है। एक श्रृंखला है, एक सिलसिला है। फूलों का एक ढेर है, उसमें कोई श्रृंखला नहीं है। उसमें कोई संगीत नहीं है। उसमें दो फूल जुड़े नहीं हैं किसी अनुस्यूत धागे से। सब फूल अलग-अलग हैं। बिखरे पड़े हैं। .
. तो या तो जीवन ऐसा हो सकता है कि जीवन के सब क्षण बिखरे पड़े हैं, एक क्षण से दूसरे क्षण के भीतर दौड़ती हुई कोई जीवनधारा नहीं है, कोई धागा नहीं जो सबको जोड़ता हो। अधिक लोगों का जीवन क्षणों का ढेर है। जन्म से लेकर मृत्यु तक तुम्हें भी उतने ही क्षण मिलते हैं जितने बुद्ध को। लेकिन बुद्ध का जीवन एक माला है। हर क्षण पिरोया हुआ है। हर क्षण अपने पीछे क्षण से जुड़ा है, आगे क्षण से जुड़ा है। जन्म और मृत्यु एक श्रृंखला में बंधे हैं। एक अनुस्यूत संगीत है।
इसे थोड़ा समझो। तुम ऐसे हो जैसे वर्णमाला के अक्षर। बुद्ध ऐसे हैं जैसे उन्हीं अक्षरों से बना एक गीत। गीत में और वर्णमाला के अक्षरों में कोई फर्क नहीं है। वही अक्षर हैं। वर्णमाला में जितना है उतना ही सभी गीतों में है।
मार्क ट्वेन के जीवन में एक घटना है। उसके मित्र ने उसे निमंत्रित किया। मित्र एक बहुत बड़ा उपदेष्टा था। मार्क ट्वेन कभी उसे सुनने नहीं गया था। कुछ ईर्ष्या रही होगी मन में मार्क ट्वेन के। मार्क ट्वेन खुद बड़ा साहित्यकार था। लेकिन उपदेष्टा की बड़ी ख्याति थी। __मित्र ने कई दफा निमंत्रित किया तो एक बार गया। सामने की ही कुर्सी पर बैठा था। उस दिन मित्र ने जो श्रेष्ठतम उसके जीवन में भाव में था, कहा। क्योंकि मार्क ट्वेन सुनने आया था। लेकिन मार्क ट्वेन के चेहरे पर कोई भावदशा नहीं बदली। वह ऐसे ही बैठा रहा अकड़ा जैसे कुछ भी नहीं हो रहा है। जैसे क्या कचरा बकवास
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