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________________ प्रार्थना स्वयं मंजिल शरीर में ही रहना तुमसे नहीं हो पाता, मन की तो बात अलग। मन में जाते ही चिंता पकड़ती है। विचारों का ऊहापोह पकड़ता है। आत्मा तो फिर बहुत दूर है। क्योंकि आत्मा यानी निर्विचार ध्यान, आत्मा यानी समाधि-आकाश, मुक्त, असीम। परमहंस कहा है ज्ञानियों को। लेकिन ज्ञान को आचरण में बदलने की कीमिया, बदलने का रहस्य समझ लेना चाहिए। तुम समझ भी लेते हो कभी कोई बात, स्फटिक-मणि की भांति साफ दिखाई पड़ती है कि समझ में आ गई, अगर तुम उसी क्षण उसका उपयोग करने लगो तो और निखरती जाए। तुम कहते हो, कल उपयोग कर लेंगे, परसों उपयोग कर लेंगे, अभी समझ में आ गई संभालकर रख लें। ___एक मित्र यहां सुनने आते थे। डाक्टर हैं, पढ़े-लिखे हैं। मैंने उनको देखा कि जब भी वे सुनते, तो बैठकर बस नोट ले रहे हैं। फिर मुझे मिलने आए तो मैंने पूछा कि आप क्या कर रहे हो? वे कहते हैं कि आप इतनी अदभुत बातें कह रहे हैं कि नोट कर लेना जरूरी है, पीछे काम पड़ेगी। जब मैं समझा रहा हूं तब वे समझ नहीं रहे हैं। वे कल पर टाल रहे हैं, समझ तक को कल पर टाल रहे हैं। करने की तो बात अलग! वे नोट ले रहे हैं अभी। फिर पीछे कभी जब जरूरत होगी, काम पड़ जाएगी। तुम अभी मौजूद थे, मैं अभी मौजूद था, अभी ही उतर जाने देते हृदय में। लेकिन वे सोचते हैं कि वे बड़ा कीमती काम कर रहे हैं। वे धोखा दे रहे हैं। खुद को धोखा दे रहे हैं। यह बचाव है समझने से, समझना नहीं है। सामने एक घटना घट सकती थी, अभी और यहीं। मैं तुम्हारी आंख में झांकने को राजी था। तुम आंख बचा लिए-नोट करने लगे। मैंने हाथ फैलाया था तम्हें उठा लूं बाहर तुम्हारे गड्ढे से। तुम्हारा हाथ तुमने व्यस्त कर लिया, तुम नोट लेने लगे। मैंने तुम्हें पुकारा, तुमने पुकार न सुनी। तुमने अपनी किताब में कुछ शब्द अंकित कर लिए और तुम बड़े प्रसन्न हुए। तुम अभी जीवित सत्य को न समझ पाए, कल के लिए टाल दिया। करोगे कब? . टालना मनुष्य के मन की सबसे बड़ी बीमारी है। जो समझ में आ जाए उसे उसी क्षण करना। क्योंकि करने से स्वाद आएगा। स्वाद आते से करने की और भावना जगेगी। और करने से और स्वाद आएगा। अचानक एक दिन तुम पाओगे, जिसे तुमने ज्ञान की तरह सोचा था, वह ज्ञान नहीं रहा आचरण बन गया। 'जैसे कोई सुंदर फूल वर्णयुक्त होने के साथ-साथ सुगंधित होता है, वैसे ही आचरण करने वाले के लिए सुभाषित वाणी सफल होती है।' __ और ध्यान रखना, जो भी जाना जा सकता है वह जीकर ही जाना जा सकता है। नाहक की बहस में मत पड़ना। क्योंकि बहस भी अक्सर बचने का ही उपाय है। और व्यर्थ के तर्कजाल में मत उलझना। क्योंकि तुम्हें बहुत मिल जाएंगे कहने वाले कि इसमें क्या रखा है? लेकिन गौर से देख लेना कि जो कह रहा है, उसने कुछ 165
SR No.002379
Book TitleDhammapada 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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