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________________ एस धम्मो सनंतनो आज नहीं कल जग जाएगा। दुख जगाता है। पंडित एक सुख का सपना देख रहा है कि जानता है। बिना जाने । शास्त्र से बचना। शास्त्र जंजीर हो सकता है। सुभाषित, सुंदर वचन जहर हो सकते हैं। जिस चीज को भी तुम जीवन में रूपांतरित न कर लोगे वही जहर हो जाएगी। तुम्हारी जीवन की व्यवस्था में जो भी चीज पड़ी रह जाएगी बिना रूपांतरित हुए, बिना लहू-मांस- मज्जा बने, वही तुम्हारे जीवन में जहर का काम करने लगेगी। पंडित का अस्तित्व विषाक्त हो जाता है। 'जैसे कोई सुंदर फूल वर्णयुक्त होने के साथ-साथ सुगंधित होता है, वैसे ही आचरण करने वाले के लिए सुभाषित वाणी सफल होती है। ' - तो ध्यान इस पर हो कि मेरा आचरण क्या है ? मेरा होने का ढंग क्या है ? मेरे जीवन की शैली क्या है? परमात्मा को मानो या न मानो, अगर तुम्हारा आचरण ऐसा है — घर लौटने वाले का, संसार की तरफ जाने वाले का नहीं । प्रत्याहार करने वाले का, अपनी चेतना के केंद्र की तरफ आने वाले का। अगर तुम्हारा आचरण ऐसा है— व्यर्थ का कूड़ा-करकट इकट्ठा करने वाले का नहीं, सिर्फ हीरे ही चुनने वाले का। अगर तुम्हारा आचरण हंस जैसा है कि मोती चुन लेता है, कि दूध और पानी में दूध पी लेता है, पानी छोड़ देता है । हमने ज्ञानियों को परमहंस कहा है। तुमने कभी समझा, क्यों ? दो कारणों से। एक तो हंस सार को असार से अलग कर लेता है । और दूसरा, हंस सभी दिशाओं में गतिवान है। वह जल में तैर सकता है, जमीन पर चल सकता है, आकाश में उड़ सकता है। उसके स्वातंत्र्य पर कहीं कोई सीमा नहीं है। जमीन हो तो चल लेता है। सागर हो तो तैर लेता है। आकाश हो तो उड़ लेता है। तीनों आयामों में, तीनों डायमेंशन्स में उसके लिए कहीं कोई रुकावट नहीं है। जिस दिन तुम सार और असार को पहचानने लगोगे, उस दिन तुम्हारा स्वातंत्र्य भी इतना ही अपरिसीम हो जाएगा जैसा हंस का । इसलिए हमने ज्ञानियों को परमहंस कहा है। न जानने से ही बंधे हो । जमीन पर ही ठीक से रहना नहीं आता, पानी पर चलने की तो बात अलग! आकाश में उड़ना तो बहुत दूर ! शरीर में ही ठीक से रहना नहीं आता, मन की तो बात अलग, आत्मा की तो बात बहुत दूर ! शरीर यानी जमीन । मन यानी जल । आत्मा यानी आकाश । इसलिए मन जल की तरह तरंगायित । शरीर थिर है पृथ्वी की तरह । सत्तर साल तक डटा रहता है। गिर जाता है उसी पृथ्वी में जिससे बनता है । मन बिलकुल पानी की तरह है। पारे की तरह कहो । छितर- छितर जाता है। आत्मा आकाश की तरह निर्मल है। कितने ही बादल घिरे, कोई बादल धुएं की एक रेखा भी पीछे नहीं छोड़ गया। कितनी ही पृथ्वियां बनीं और खो गयीं। कितने ही चांद-तारे निर्मित हुए और विलीन हो गए। आकाश कूटस्थ है, अपनी जगह, हिलता-डुलता नहीं । 164
SR No.002379
Book TitleDhammapada 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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