________________
बारीकियों को बताते हैं—दमन और दमन में जो महीन फर्क है, उसे रेखांकित करते हैं। बुद्ध, महावीर और पतंजलि का 'दमन' फ्रायड के 'दमन' से भिन्न है। पहली कोटि का 'दमन' रूपांतरण है, जब कि फ्रायड का 'दमन' निषेध है—'रोक' है। अपने आलंबन के दर्शन-मात्र से काम-कंडु की बारंबारता को महसूस करने वाली बढ्ढेसी (थेरी) को तथा कार्षापण के लोभ-लालच से ग्रस्त खुजुत्तरा (दासी) को उसी दमन की आवश्यकता थी, जो रूपांतरण का पर्याय बन सके।
ओशो ज्ञानी से ध्यानी बने, दार्शनिक से संत बने और संत से सहजिया बने। इसलिए ओशो बांह उठाकर कहते हैं कि भक्त बनो या ध्यानी बनो। ज्ञानी कभी नहीं बनो।
ओशो के अनुसार चैतन्य और ज्ञान-दो हैं। चैतन्य ज्ञान से अधिक महत्वपूर्ण है। आजकल लोग इतना ज्ञान अर्जित करते हैं कि वह चैतन्य पर हावी हो जाता है। इसलिए मनुष्य को यथावश्यक ज्ञान अर्जित करना चाहिए। किंतु, चैतन्य को ज्ञान के भार से दबा नहीं देना चाहिए। इस तरह पांडित्य और शास्त्रीयता से बचने की सीख दी है ओशो ने। बौद्ध परंपरा के अनुसार छह प्रकार के 'सार'-शील-सार, समाधि-सार, प्रज्ञा-सार, विमुक्ति-सार, विमुक्ति ज्ञान-दर्शन-सार और परमार्थ-सार की तरह ओशो के उपदेश का प्रमुख सार यह है कि बुद्ध का 'ध्यान' हो, महावीर का 'सामायिक' हो, पतंजलि की 'समाधि' हो या कृष्णमूर्ति की 'समझ' हो-जिसे भी अपनाओ, सहज भाव से चैतन्य-केंद्रित बने रहो। 'संयोग' से ही 'संयोगातीत' मिल जाता है। जो जाग जाता है, वह 'बुद्ध पुरुष' बन जाता है। वह प्रत्याहार, प्रतिक्रमण और प्रतिप्रसव के गूढार्थ को समझ लेता है।
ओशो के ये दिव्य विचार चिति-क्रांति के रूप में अवतरित हो सकें-इसके लिए आवश्यक है कि ओशो के शैक्ष और अनुगंता चैतन्य के विभिन्न धरातलों पर सक्रिय बने रहें, रज्जब की तरह गुरु के महाप्रयाण के बाद प्रशांत-चेष्ट नहीं बनें। कहते हैं कि दूल्हे के वेष में गुरु-दीक्षा लेने वाले रज्जब.गुरु की आज्ञा के अनुसार दीक्षोपरांत भी शेष जीवन में दूल्हे का वेष ही धारण किए रहे। और जब उनके गुरु दादू दयाल का शरीर-प्रणिपात हो गया, तब उन्होंने (रज्जब ने) यह कहकर अपनी आंखें मृत्यु-पर्यंत मुंदी रखीं कि जो परम उदात्त था, उसके विलीन हो जाने के बाद वे 'कुरूप' को-शेष सृष्टि को देखने के लिए अपनी आंखें क्यों खोलें? गुरु दादू दयाल के महाप्रयाण से उत्पन्न रज्जब की वेदना का हाहाकार उनकी इन पंक्तियों में मिलता है
दीन दयाल दियो दुख दारुन, दादू सी दौलत हाथ सौं छीनी। ... ... ... ... ... ... ... ...
रज्जब रोय कहै यह केहि जु, त्राहि जुत्राहि कहा यहु कीनी।। वियोग-वेदना से आहत और वेपथुमान शिष्य की आंखों का मृत्यु-पर्यंत मुंदा रहना मर्मांतक शोक की निदारुण अभिव्यक्ति है। किंतु, जो 'कुरूप' है-'शिवेतर'