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________________ एस धम्मो सनंतनो जो पाप के साथ अपने को एक समझता है, वह भ्रांति में है। जो पुण्य के साथ अपने को एक समझता है, वह भी भ्रांति में है। उसने कृत्य के साथ अपने को एक समझ लिया। उसने अपने को कर्ता समझ लिया। ___ अवलोकन करने वाला इस नतीजे पर आता है कि मैं केवल द्रष्टा हूं, कर्ता नहीं। फिर पाप और पुण्य दोनों ही मिट जाते हैं। जैसे स्वप्न में किए हों कभी। जैसे किसी उपन्यास में पढ़े हों कभी। जैसे कभी अफवाह सुनी हो। स्वयं से उनका कोई संबंध नहीं रह जाता। यही शुद्ध बुद्धत्व है। कभी-कभी तुम्हें भी अचानक क्षणभर को इसकी झलक मिल जाएगी; और क्षणभर को भी बिजली कौंध जाए तो जिंदगी फिर वही नहीं होती जो पहले थी। अवलोकन करो। तुम जमाने की राह से आए वरना सीधा था रास्ता दिल का दूसरों के संबंध में सोचते-विचारते, बाजार में भटकते, संसार की लंबी परिक्रमा करते अपने तक आए। तुम जमाने की राह से आए वरना सीधा था रास्ता दिल का अन्यथा जरा गर्दन झुकाने की बात थी। अवलोकन से तुम सीधे स्वयं में पहुंच जाओगे। हां, दूसरे के कृत्य-अकृत्य का विचार करते रहे, तो बड़ी परिक्रमा है, अनंत परिक्रमा है। अनंत जन्मों तक भी तुम यह विचार चुकता न कर पाओगे। कितने हैं दूसरे? किस-किस का हिसाब करोगे? किस-किस के लिए रोओगे, हंसोगे? किसकी प्रशंसा, किसकी निंदा करोगे? अगर ऐसे तुम चल पड़े...। ___ मैंने सुना है कि एक आदमी भागा जा रहा था। राह के पास बैठे आदमी से उसने पूछा कि भाई, दिल्ली कितनी दूर है? उस आदमी ने कहा, जिस तरफ तुम जा रहे हो, बहुत दूर। क्योंकि दिल्ली तुम आठ मील पीछे छोड़ आए हो। अगर इसी रास्ते से जाने की जिद्द हो, तो सारी पृथ्वी की परिक्रमा करके जब आओगे-अगर बच गए–तो दिल्ली पहुंच जाओगे। अगर लौटने की तैयारी हो तो ज्यादा दूर नहीं है। तुम जमाने की राह से आए वरना सीधा था रास्ता दिल का दिल्ली बिलकुल पीछे है। आठ मील का फासला भी नहीं है। अवलोकन की बात है। निरीक्षण की बात है। जागृति की बात है, अप्रमाद की बात है। जरा होश साधना। ___ पहली बात, दूसरों का विचार मत करो। अपना ही विचार करने योग्य काफी है। आंख बंद करो, अपने ही कृत्यों को देखो। और अपने कृत्यों के भी निर्णायक मत बनो, अन्यथा अवलोकन समाप्त हो गया। तुम आसक्त हो गए। तुमने कहा यह ठीक है, तो प्रीति बनी। तुमने कहा यह ठीक नहीं, तो अप्रीति बनी। किसी कृत्य से 160
SR No.002379
Book TitleDhammapada 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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