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प्रार्थना स्वयं मंजिल
शब्द दे सकते हैं, सत्य नहीं। अंधेरे की दीवालों पर बनाई गई दीए की तस्वीरें धोखा दे सकती हैं, रोशनी नहीं।
और जो व्यक्ति दूसरों के दोष पर ध्यान देता है, वह अपने दोष पर तो ध्यान देता नहीं, जो छोटे-मोटे...जिनको तम पुण्य कहते हो, जिनको पुण्य कहना फिजूल ही है। जिनको पुण्य केवल नासमझ कह सकते हैं, जो तुम्हारे पाप के ही सजावटों से ज्यादा नहीं है, पाप का ही श्रृंगार है जो, पाप के ही माथे पर लगी बिंदी है, पाप के ही हाथों में पड़ी चूड़ी है, पाप के ही पैरों में बंधे घूघर हैं, उन्हें तुम पुण्य कहते हो। उनका हिसाब रखते हो! ___ बुद्ध ने कहा, छोड़ो यह बात। दूसरों के दोष पर ध्यान न दो। उससे तुम्हारा कोई प्रयोजन नहीं है। तुम्हारा प्रयोजन केवल तुमसे है। दूसरों के कृत्य-अकृत्य मत देखो। केवल अपने कृत्य-अकृत्य का अवलोकन करो। सिर्फ अपना ही आब्जर्वेशन, अवलोकन।
यह शब्द समझ लेने जैसा है-अवलोकन। अवलोकन बुद्ध की प्रक्रिया है जीवन के अंधकार से मुक्त होने के लिए। बुद्ध यह नहीं कहते हैं कि तुम अपने पाप को देखो और दुखी होओ, पश्चात्ताप करो कि मैं पापी हूं। और न बुद्ध कहते हैं, तुम अपने पुण्य को देखो और बड़े फूले न समाओ और उछलकर चलो कि मैं बड़ा पुण्यात्मा हूं। बुद्ध कहते हैं, तुम अवलोकन करो।
- अवलोकन का अर्थ होता है, तटस्थ दर्शन। बिना किसी निर्णय के। न यह कहना कि ठीक; न यह कहना कि बुरा, न भला; न पाप, न पुण्य। तुम कोई निर्णय मत लेना। तुम कोई मूल्यांकन मत करना। तुम सिर्फ देखना। जैसे कोई आदमी रास्ते के किनारे खड़ा हो जाए, भीड़ चलती है, देखता है। अच्छे लोग निकलते हैं, बुरे लोग निकलते हैं, उसे कुछ प्रयोजन नहीं। साधु निकलते हैं, असाधु निकलते हैं, प्रयोजन नहीं। या जैसे कोई लेट गया है घास पर क्षण भर, आकाश में चलते बादलों
को देखता है। उनके रूप-रंग अलग-अलग। काले बादल हैं, शुभ्र बादल हैं, कोई हिसाब नहीं रखता, चुपचाप देखता रहता है।
अवलोकन का अर्थ है, एक वैज्ञानिक दृष्टि। तटस्थ-भाव। मात्र देखने पर ध्यान रखो। जोर देखने पर है। जो तुम देख रहे हो उसके निर्णय करने पर नहीं कि वह ठीक है या गलत। तुम न्यायाधीश मत बनो। तुम तराजू लेकर तौलने मत लगो। तुम मात्र द्रष्टा रहो। जिसको उपनिषद साक्षी कहते हैं, उसी को बुद्ध अवलोकन कहते हैं। बस देखो। जैसे अपना कुछ लेना-देना नहीं। एक तटस्थ-भाव। एक फासले पर खड़े हुए चुपचाप। और एक अदभुत क्रांति घटती है। जितने तुम तटस्थ होते जाते हो, उतना ही तुम्हें पता चलता है कि तुम अपने कृत्यों से अलग हो। पाप से भी अलग, पुण्य से भी अलग। और यह जो अलगपन है इसी का नाम मुक्ति है, मोक्ष है।
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