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________________ समझ और समाधि के अंतरसूत्र तुमने कभी खयाल किया कि बहुत से काम शरीर चुपचाप किए चला जाता है। तुमने भोजन किया। शरीर पचाता है, तुम थोड़े ही पचाते हो। तुम्हें तो फिर खयाल भी नहीं रखना पड़ता कि शरीर पचा रहा है। अपने आप पचाए चला जाता है। __ उस घड़ी बुद्ध ने जो पहली दफा मक्खी उड़ाई, वह बुद्ध ने उड़ाई यह कहना ही गलत है। कहने की बात है, इसलिए उस तरह कही गई। हुआ ऐसा कि बुद्ध तो पूरे के पूरे आनंद से चर्चा में मौजूद थे, मक्खी आ गई, शरीर ने उड़ा दी। बुद्ध ने शरीर को सुधारा। जब दुबारा उन्होंने मक्खी उड़ाई तो उन्होंने शरीर को एक पाठ दिया कि ऐसे उड़ानी थी-मैं घर पर नहीं था तो भी गलती नहीं होनी चाहिए। मैं मौजूद नहीं था, तो भी गलती नहीं होनी चाहिए। अगर मैं न भी रहूं तो भी तुझे ऐसे ही मक्खी उड़ानी चाहिए जैसे बुद्धपुरुषों को शोभा देती है। यह शरीर को थोड़ा सा संशोधन किया। लेकिन तत्क्षण दूसरे दिन सवाल आ गया कि बुद्धपुरुषों से भूल हो गई! तुम इतने उत्सुक हो भूल दूसरे की देखने में कि बुद्धपुरुषों में भी देखने का रस तुम्हारा छूटता नहीं। किसी ने एक दिन पूछा कि कभी-कभी मैं बोलने में किसी शब्द की भूल कर जाता हूं। बुद्धपुरुषों से भूल नहीं हो सकती। तो जाहिर है, या तो मैं बुद्धपुरुष नहीं हूं, या फिर बुद्धपुरुषों से भूल होती है। इसलिए मैं कहता हूं, तुम्हारे सामने बोलना करीब-करीब भैंस के सामने बीन बजाने जैसा है। . जब मैं तुमसे बोल रहा हूं तब मैं तुम्हारे साथ इतनी गहनता से हूं कि मैं मस्तिष्क पर ध्यान ही नहीं दे सकता। तो बोलने का काम और शब्द बनाने का काम तो मस्तिष्क का यंत्र कर रहा है-जैसे बुद्ध के हाथ ने मक्खी उड़ा दी थी, ऐसा मेरा मस्तिष्क तुमसे बोले चला जाता है, मैं तो तुम्हारे साथ हूं। यंत्र कई दफे भूलें कर जाता है। यंत्र की भूलें मेरी भूलें नहीं हैं। और जिसने मुझे पहचाना, वह ऐसे सवाल न उठाएगा। ऐसे सवाल तुम्हारे मन में उठ जाते हैं, क्योंकि तुम आ गए हो भला मेरे पास लेकिन झुकने की इच्छा नहीं है। कोई भी बहाना मिल जाए, तो तुम अपना झुकना वापस ले लो कि अरे! इस आदमी से एक शब्द की भूल हो गई! कहना कुछ था, कह कुछ और दिया। फिर पीछे सुधारना पड़ा। तुम इस तलाश में हो कि किसी भी तरह तुम्हारा समर्पण बच जाए। सचाई यह है कि मैं एक बहुत कठिन काम कर रहा हूं। तुम्हारे साथ हो सकता हूं पूरा, बोलने की वजह से एक दूसरा काम भी मुझे साथ में करना पड़ रहा है। अच्छा तो यही होता कि मैं चुप हो जाता। तुम्हें भी भूल न मिलती, मेरी भी झंझट छट जाती। लेकिन तुम शब्दों को भी नहीं समझ पा रहे हो, तुम मौन को भी न समझ पाते। मेहरबाबा चुप हो गए। तो ऐसे लोग थे जो समझते थे कि बोलने को कुछ नहीं आता इसलिए चुप हो गए। तुम वहां भी भूल खोज लोगे। बुद्ध ने बहुत से प्रश्नों के 143
SR No.002379
Book TitleDhammapada 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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