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यह कहा जा चुका है कि बुद्ध तो 'इटर्नल' हैं। मैत्रेय बुद्ध आने वाले हैं। यानी भावी बुद्ध भी हैं। इस तरह बुद्ध गौतम बुद्ध हों, लोक-विनायक बुद्ध हों या दीपंकर बुद्ध (गौतम बुद्ध के पूर्ववर्ती बुद्ध) हों या मैत्रेय बुद्ध (भावी बुद्ध) हों, उनकी अंतर्यामिता को समझा है पूरी गहराई में ओशो ने। ओशो की भगवत्ता हमें उस अतिशयातिरेक की ओर ले जाती है, जिसे साधारणतः आस्तिक ‘परमात्मा' कहते हैं।
पूर्व बुद्ध, दीपंकर बुद्ध और मैत्रेय बुद्ध की परंपरा में गौतम बुद्ध ! जब 'एस धम्मो सनंतनो' के एक खंड की भूमिका लिखने का अनुरोध स्वामी चैतन्य कीर्ति जी ने मुझसे किया, तो मैं घबड़ा गया। एक उच्छ्राय भय (ऐक्रोफोबिया) मन में व्याप गया। मैं इसके लिए अपनी पात्रता पर विचार करने लगा। क्या मैं अपनी अल्प मति का उडुप लेकर चैतन्य-सागर का संतरण कर सकूँगा? क्या मैं 'एस धम्मो सनंतनो' पर लिख सकूँगा? मानों, अपनी हीन भावना का धुआं निकालने के लिए कोई दूदकश मिल गया! अपनी अयोग्यता को स्वीकारते हुए भी अंतर्मन के एक कोने से आवाज आई कि मैं इस पर लिख सकता हूं। इसलिए कि गया, नालंदा और राजगृह के निकट में रहता हूं; जहां-पता नहीं, बुद्ध ने कितनी बार अपनी त्वरित और अत्वरित चारिकाओं के साथ परिभ्रमण किया था! यहीं तो बुद्ध की बोधि-प्राप्ति की भूमि है, चंक्रमण-भूमि है, धरती के साक्ष्य का वाचन करती हुई भूमि-स्पर्श की मुद्रा है और वह गृद्धकूट है, जिसके शिखर पर बैठकर गौतम बुद्ध ने 'सद्धर्म पुंडरीक' के उपदेश दिए थे।। ____ यही है 'मिश्र संस्कृत' में रचित वह ‘सद्धर्म पुंडरीक', जिसने यानत्रय-श्रावक यान, प्रत्येक बुद्ध यान एवं बोधिसत्व यान—के स्थान पर 'एकयान' यानी 'बुद्धयान' की स्थापना की। इतना ही नहीं, 'धम्मपद' के पद अधिकांशतः जिन स्थानों-जेतवन, वेणुवन, वैशाली, राजगृह, जीवकाम्रवन इत्यादि में कहे गए, वे तो मेरे आवास (पटना) के पास ही हैं। फिर याद आ गया मुझे सन 1970-74 ईस्वी का वह कार्य-काल, जब मैं बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना के निदेशक-पद पर पदस्थापित था और मैंने मई, 1971 ईस्वी में वसुबंधुकृत 'अभिधर्मकोश' के प्रामाणिक अनुवादक आचार्य नरेंद्र देव की बहुप्रशंसित पुस्तक 'बौद्ध धर्म-दर्शन' के द्वितीय संस्करण का निदेशकीय 'वक्तव्य' लिखा था। तब मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मैं 'एस धम्मो सनंतनो' पर दो शब्द लिख सकता हूं और यह एक अदृश्य कृपा ही है-सदय 'शक्तिपात' की तरह, जो मुझसे 'एस धम्मो सनंतनो' की भूमिका लिखने का अनुरोध स्वामी चैतन्य कीर्ति जी द्वारा किया गया।
धम्मपद (धर्म का मार्ग) सुत्तपिटक के पंच निकायों में अन्यतम खुद्धक निकाय
। 'सद्धर्म पुंडरीक' का प्रामाणिक संस्करण डे ला' वाले पुसां नामक एक फ्रेंच विद्वान ने तथा बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना ने प्रकाशित किया है।