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________________ समझ और समाधि के अंतरसूत्र मैं दरवाजे था। लेकिन जैसे मेरी छाया मुझसे पहले पहुंच जाती। जैसे मेरा वातावरण, पर होता, और उसे छू लेता । जैसे कोई गंध उसे खबर दे देती । तो इस नए शिष्य ने पूछा, फिर तुमने कैसे उसकी अनुकंपा को पाया? उसके प्रसाद को पाया? उसने कहा, वह तो मैं कभी न पा सका। जब मैं मर ही गया, तब मिला। उसने कहा, भलेमानुष, पहले क्यों न बताया? यही हम भी करेंगे। अब कहीं कोई यह कर सकता है ? दूसरे दिन वह गया। जैसे ही गुरु ने उसकी तरफ देखा, इसके पहले कि गुरु कहे कि नहीं, बकवास बंद, वह भड़ाम से गिर पड़ा, आंखें बंद कर लीं, हाथ फैला दिए, जैसे मर गया । गुरु ने कहा, बहुत खूब ! बिलकुल ठीक-ठीक किया। प्रश्न का क्या हुआ ? उस शिष्य ने- अब मजबूरी - एक आंख खोली और कहा कि प्रश्न तो अभी हल नहीं हुआ। तो गुरु ने कहा, नासमझ ! मुर्दे बोला नहीं करते, और न मुर्दे ऐसे आंख खोलते हैं। उठ, भाग यहां से; और किसी दूसरे से उत्तर मत पूछना। पूछे उत्तरों का क्या मूल्य है ? वह तुम्हारा होना चाहिए। तुम्हारे अंतरतम से आना चाहिए। तुम उसमें मौजूद होने चाहिए। वह तुम्हारा गीत हो, वह तुम्हारा नाच हो । उसमें तुम पूरे लीन हो जाओ। वह जीवन हो कि मौत, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । महाकाश्यप उस दिन हंसा। कहना ठीक नहीं हंसा हंसी फैल गई देखकर यह सारी दशा । बुद्ध का सामने होना और लोगों का अंधे बने रहना, सूरज का निकल आना और अंधेरे का न मिटना देखकर हंसा । ज्ञान बरसता हो, और लोगों के घड़े चिकने हों, और जल उन पर पड़ता ही न हो, यह देखकर हंसा । हंसता या न हंसता, फूल उसे मिलना था। हंसी, न हंसी तो सांयोगिक है । बुद्ध ने फूल हर हालत दिया होता। हंसने की वजह से नहीं दिया, ध्यान रखना, नहीं तो फिर भूल हो जाएगी। यही तो भूल है मन की । तब तुम सोचोगे कि हंसने की वजह से दिया, तो अगर अब दुबारा कभी ऐसा मौका हमें मिलेगा तो हम हंस देंगे। वहीं तुम चूक जाओगे। हंसने की वजह से नहीं दिया। हंसी के पीछे जो मौन था - हंसी के पीछे विचार भी हो सकता है, तब व्यर्थ हो गई— हंसी के पीछे जो मौन था, उस खिलखिलाहट के फूलों के पीछे जो परम शांति थी । वह हंसी निर्वाण का फूल थी । न हंसता तो बुद्ध उठकर गए होते। हंसा तो बुद्ध ने उसे बुला भी लिया । न हंसता तो बुद्ध खुद उठकर गए होते, खुद उसकी झोली में उंडेल दिया होता। लेकिन इस तरह के प्रश्न तुम्हारे मन में उठते क्यों हैं? तुम्हारे जीवन की समस्याएं हल हो गयीं कि तुम महाकाश्यप की चिंता में पड़े हो ? तुम्हारा जीवन समाधान को उपलब्ध हो गया कि तुम इस तरह के बौद्धिक प्रश्न उठाते हो ? मत वाओ समय को इस भांति, अन्यथा कोई महाकाश्यप तुम पर भी हंसेगा, तुम्हारी मूढ़ता पर भी हंसेगा। यहां मैं तुम्हारे सामने मौजूद हूं, कुछ हो सकता है। जब मैं मौजूद नहीं रहूंगा, तब तुम रोओगे। अगर अभी न हंसे, तो तब तुम रोओगे। इस 131
SR No.002379
Book TitleDhammapada 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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