________________
एस धम्मो सनंतनो
लिए - दे दिया फूल | वक्तव्य उसने प्रगट कर दिया। अस्तित्व को तो ऐसे ही बिखेर कर बताया जाता । अब और क्या कहने को रहा — उलटा दिया पात्र, जल बिखर
गया सब तरफ।
ऐसे ही उस दिन महाकाश्यप ने भी उलटा दिया था अपना पात्र । खिलखिलाहट बिखर गई थी सब तरफ। ऐसी फिर हजारों घटनाएं हैं झेन परंपरा में। एक घटना को दुबारा नहीं दोहरा सकते, याद रखना। क्योंकि दोहराने का तो मतलब होगा, सोच कर की। इसलिए हर घटना अनूठी है और आखिरी है । फिर तुम उसे पुनरुक्त नहीं कर सकते।
अगर मैं आज फूल लेकर आ जाऊं, तो जो हंसेगा, उसको भर नहीं मिलेगा। अगर आज मैं बर्तन में पानी रखकर बैठ जाऊं और तुम से पूछूं, तो जो लात मारकर लुढ़काएगा, उसको भर नहीं मिलेगा। वह तो विचार हो गया अब । अब तो महाकाश्यप की कहानी पता है।
हजारों घटनाएं हैं, लेकिन हर घटना अनूठी है। और उसकी पुनरुक्ति नहीं हो सकती। क्योंकि पुनरुक्ति यानी विचार । कुछ कहो पूरे अस्तित्व से, और कुछ कहो इस ढंग से जैसा कभी न कहा गया हो, तो फिर मन को जगह नहीं बचती । मन तो अनुकरण करता है, दोहराता है, यंत्रवत है। मन के पास कोई मौलिक सूझ नहीं होती।
एक दूसरे झेन फकीर का एक शिष्य बहुत दिन से चिंता में रत है— गुरु ने कोई सवाल दिया है जो हल नहीं होता। जब सब तरह के उपाय कर चुका तो उसने प्रधान शिष्य को पूछा कि तुम तो स्वीकार हो गए हो, तुम तो कुछ कुंजी दो। हम परेशान हुए जा रहे हैं, वर्षों बीत गए । कुछ हल नहीं होता, कोई राह नहीं मिलती। और जब भी जाते हैं, हम उत्तर भी नहीं दे पाते और गुरु कहता है, बस, बकवास बंद। अभी हम बोले भी नहीं ! अब यह तो हद्द हो गई। ऐसे तो हम कभी भी जीत न पाएंगे। कम से कम बोलने तो दो। हम कुछ कहें, फिर तुम कहो गलत और सही। हम बोलते ही नहीं और गलत हो जाता है। तो अब तो सही होने का कोई उपाय न रहा । गुरु नाराज है।
शिष्य हंसने लगा। प्रधान शिष्य ने कहा, नाराज नहीं। क्योंकि जब तुम विचार करते हुए जाते हो तो चेहरे का ढंग ही और होता है। जब तुम निर्विचार में जाते हो, तो चेहरे का ढंग ही और होता है । सोचो थोड़ा, जब तुम विचार से भरे होते हो तो सारे चेहरे पर तनाव होता है। आंख में, माथे पर बल होते हैं। जब तुम निर्विचार में होते हो, सब बल खो जाते हैं, सब तनाव खो जाता है । जब तुम निर्विचार में होते हो, तब तुम्हारे चारों तरफ ऐसी शांति झरती है कि अज्ञानी भी पहचान ले, तो गुरु न पहचानेगा! वह तुम्हें दरवाजे के भीतर घुसने देता है, यह भी उसकी करुणा है। उस प्रधान शिष्य ने कहा कि मेरी तुम्हें पता नहीं। दरवाजे के बाहर ही रहता था, वह कहता था, लौट जा । फिजूल की बकवास लेकर मत आ । अभी उसने मुझे देखा भी नहीं
130