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________________ समझ और समाधि के अंतरसूत्र किए प्रकाश की चर्चा में लीन हैं। महाकाश्यप हंसा लोगों की मूढ़ता पर । हंसा कहना ठीक नहीं, हंसी निकल गई। कुछ किया नहीं हंसने में। वह रुक न सका । घट गया, फूट पड़ी हंसी देखकर सारी नासमझी। हजारों लोग मौजूद थे, चूके जा रहे हैं, इस मूढ़ता पर हंसा । और इस बात पर भी हंसा कि बुद्ध ने भी खूब खेल खेला। जो नहीं कहा जा सकता, वह भी कह दिया। जो नहीं बताया जा सकता, उसको भी बता दिया । जिसको जतलाने में कभी अंगुलियां समर्थ नहीं हुईं, उस तरफ भी इशारा कर दिया। उपनिषद उस दिन मात हो गए। जो नहीं कहा जा सकता था, उसे कृत्य बना दिया। वक्तव्य दे दिया उसका संपूर्ण जीवन से । इसलिए उस दिन के बाद झेन परंपरा में जब भी गुरु प्रश्न पूछता है तो शिष्य को उत्तर नहीं देना होता, कोई कृत्य करना होता है जिससे वक्तव्य मिल जाए। कोई कृत्य, ऐसा कृत्य जिसमें शिष्य संपूर्ण रूप से डूब जाए । महाकाश्यप हंसा, ऐसा नहीं, महाकाश्यप हंसी हो गया। पीछे कोई बचा नहीं जो हंस रहा था । कोई पीछे खड़ा नहीं था जो हंस रहा था। महाकाश्यप एक खिलखिलाहट होकर बिखर गया उस संगत पर। झेन फकीर प्रश्न पूछते हैं...। एक झेन फकीर हुआ। बैठा था, शिष्य बैठे थे । एक बर्तन में पानी रखा था। उसने कहा कि सुनो, बिना कुछ कहे बताओ कि यह क्या है ? यह बर्तन और यह पानी, बिना कुछ कहे कोई वक्तव्य दो । अर्थात कृत्य से घोषित करो, जैसा महाकाश्यप ने किया था— खिलखिलाकर। और जब कृत्य से महाकाश्यप ने घोषित किया, तो कृत्य से बुद्ध ने उत्तर भी दिया - फूल देकर । आज मैं भी तुम्हें फूल देने को उत्सुक हूं। | शिष्य देखने लगे, हाथ में कोई फूल तो नहीं था । सोचने लगे कि यह बात तो और उलझन की हो गई। कम से कम बुद्ध हाथ में फूल तो लिए थे; इस आदमी के हाथ में कोई फूल नहीं है । वे फूल के संबंध में सोचने लगे। और उन्होंने लाख सोचा कि इस पानी भरे बर्तन के संबंध में क्या कहो, बिना कहे कैसे वक्तव्य दो ? और सभी भोजन का समय करीब आ रहा था । रसोइया - जो भिक्षु, जी संन्यासी रसोई का काम करता था - वह भीतर आया। उसने ये उदासी, चिंतन से तने हुए लोग देखे । उसने पूछा, मामला क्या है ? गुरु ने कहा, एक सवाल है । इस जल भरे बर्तन के संबंध में वक्तव्य देना है। कोई वक्तव्य जो इसके पूरे के पूरे रहस्य को प्रगट कर दे । शब्द का उपयोग नहीं करना है । और जो यह करेगा, वही फूल मैं देने को तैयार हूं जो बुद्ध ने दिया था। लेकिन उस रसोइये ने गुरु के हाथ की तरफ देखा ही नहीं कि फूल वहां है या नहीं। गुरु फूल है । अब इसमें फूल क्या देखना ! वह उठा, उसने एक लात मार दी उस बर्तन में, पानी लुढ़ककर सब तरफ बह गया। और वह बोला कि अब उठो, हो गई बकवास बहुत, भोजन का समय हो गया । कहते हैं, गुरु ने उसके चरण छू 129
SR No.002379
Book TitleDhammapada 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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