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________________ एस धम्मो सनंतनो दूसरा नाम है। मोक्ष तुम्हारे भीतर छिपी स्वतंत्रता का ही नाम है। और क्या है स्वतंत्रता? तुम दुनिया में रहो, दुनिया तुममें न हो। वह निर्वाण तुम्हारे अहंकार के बुझ जाने का ही नाम है। जब तुम्हारे अहंकार का टिमटिमाता दीया बुझ जाता है, तो ऐसा नहीं कि अंधकार हो जाता है। उस टिमटिमाते दीए के बुझते ही महासूर्यों का प्रकाश तुम्हें उपलब्ध हो जाता है। ___ रवींद्रनाथ ने लिखा है कि जब वे गीतांजलि लिख रहे थे, तो पद्मा नदी पर एक बजरे में निवास करते थे। रात गीत की धुन में खोए-कोई गीत उतर रहा था, उतरे चला जा रहा था-वे एक टिमटिमाती मोमबत्ती को जलाकर बजरे में और देर तक गीत की कड़ियों को लिखते रहे। कोई आधी रात फंक मारकर मोमबत्ती बझाई, हैरान हो गए। पूरे चांद की रात थी यह भूल ही गए थे। यद्यपि वे जो लिख रहे थे वह पूरे. चांद का ही गीत था। जैसे ही मोमबत्ती बुझी कि बजरे की उस छोटी सी कोठरी में सब तरफ से चांद की किरणें भीतर आ गयीं। रंध्र-रंध्र से। वह छोटी सी मोमबत्ती की रोशनी चांद की किरणों को बाहर रोके हुए थी। तुमने कभी खयाल किया, कमरे में दीया जलता हो तो चांद भीतर नहीं आता। फिर दीया फूंक मारकर बुझा दिया, चांद बरस पड़ा भीतर, बाढ़ की तरह सब तरफ से आ गया। रवींद्रनाथ उस रात नाचे। और उन्होंने अपनी डायरी में लिखा कि आज एक अपूर्व अनुभव हुआ। कहीं ऐसा ही तो नहीं है कि जब तक यह अहंकार का दीया भीतर जलता रहता है, परमात्मा का चांद भीतर नहीं आ पाता। ' यही बुद्ध ने कहा है कि अहंकार के दीए को फूंक मारकर बुझा दो। दीए के बुझाने का ही नाम निर्वाण है। इधर तुम बुझे, उधर सब तरफ से परमात्मा, सत्य–या जो भी नाम दो-भीतर प्रविष्ट हो जाता है। तो एक तो जीवन को जीने का ढंग है, जैसा तुम जी रहे हो। एक बुद्धों का ढंग भी है। चुनाव तुम्हारे हाथ में है। तुम बुद्धों की भांति भी जी सकते हो-कोई तुम्हें रोक नहीं रहा है सिवाय तुम्हारे। और तुम दीन-हीन भिखमंगों की भांति भी जी सकते हो—जैसा तुम जी रहे हो—कोई तुम्हें जबर्दस्ती जिला नहीं रहा। तुमने ही न मालूम किस बेहोशी और नासमझी में इस तरह की जीवन-शैली को चुन लिया है। तुम्हारे अतिरिक्त कोई जिम्मेवार नहीं है। एक झटके में तुम तोड़ दे सकते हो, क्योंकि सब बनाया तुम्हारा ही खेल है। ये सब जो घर तुमने बना लिए हैं अपने चारों तरफ, जिनमें तुम खुद ही कैद हो गए हो। ___मैं एक घर में मेहमान था। सामने एक मकान बन रहा था और एक छोटा लड़का वहां मकान के सामने पड़ी हुई रेत और ईंटों के बीच में खेल रहा था। उसने धीरे-धीरे—मैं देखता रहा बाहर बैठा हुआ, मैं देख रहा था—उसने धीरे-धीरे अपने चारों तरफ ईंटें लगा ली और ईंटों को जमाता गया ऊपर। फिर वह घबड़ाया जब 124
SR No.002379
Book TitleDhammapada 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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