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________________ केवल शिष्य जीतेगा तुम्हारा है ही नहीं उसे तुम छोड़ोगे कैसे? इतनाभर जानने की बात है कि हम यहां मेहमान से ज्यादा नहीं। जब तुम किसी के घर मेहमान होते हो, जाते वक्त तुम ऐसा थोड़े ही कहते हो कि अब सारा घर तुम्हारे लिए छोड़े जाते हैं, त्याग किए जाते हैं। मेहमान का यहां कुछ है ही नहीं। जितनी देर घर में ठहरने का सौभाग्य मिल गया, धन्यवाद! अपना कुछ है नहीं छोड़ेंगे क्या ? इसलिए त्यागी वही है जिसने यह जान लिया कि हमारा कुछ भी नहीं है। वह नहीं, जिसने छोड़ा। क्योंकि जिसने छोड़ा, उसे तो अभी भी खयाल है कि अपना था, छोड़ा। अपना हो तो ही छोड़ा जा सकता है। अपना हो ही न, तो छोड़ना कैसा ? इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, छोड़ने की भ्रांति में मत पड़ना, क्योंकि वह पकड़ने की ही भ्रांति का हिस्सा है। तुम तो पकड़ने की भ्रांति को ही समझ लेना । अपना कुछ भी नहीं। अभी नहीं थे तुम, अभी हो, अभी फिर नहीं हो जाओगे । घड़ीभर का सपना है। आंख झपक गई, एक सपना देखा। आंख खुल गई, सपना खो गया। इस संसार को भीतर घर मत बनाने देना। तुम संसार में रहना, लेकिन संसार तुम में न रह पाए। गुजरना पानी से, लेकिन पैर भीगें नहीं। जीना, लेकिन भौरे की तरह — किसी को हानि न पहुंचे। - 'जैसे भ्रमर फूल के वर्ण और गंध को हानि पहुंचाए बिना रस को लेकर चल देता है।' क्या रस है? किस रस की बात कर रहे हैं बुद्ध ? समझा दूं, क्योंकि डर है कि तुम कुछ गलत न समझ लो । बुद्ध किस रस की बात कर रहे हैं? किस भौरे की बात कर रहे हैं? तुम जिन्हें सुख कहते हो उनकी बात नहीं कर रहे हैं। बुद्ध तो इस जीवन का एक ही रस जानते हैं, वह है बुद्धत्व। वह है इस जीवन से जागने की कला सीख कर चल देना। वही रस है । क्योंकि जिसने वह जान लिया उसके लिए महारस के द्वार खुल गए। तो जीवन के हर फूल से और जीवन की हर घटना से - जन्म हो कि मृत्यु — और जीवन की हर प्रक्रिया से तुम एक ही रस को खोजते रहना और चुनते रहना : हर अवस्था तुम्हें जगाने का कारण बन जाए, निमित्त बन जाए। घर हो कि गृहस्थी, बाजार हो कि दुकान, कोई भी चीज तुम्हें सुलाने का बहाना न बने, जगाने का बहाना बन जाए, तो तुमने रस ले लिया। मरने के पहले अगर तुमने इतना जान लिया कि तुम अमृतपुत्र हो, तो तुमने रस ले लिया। मौत के पहले अगर तुमने जीवन-असली जीवन को, महाजीवन को जान लिया, तो तुमने रस ले लिया। तो तुम यूं ही न भटके। तो तुमने ऐसे ही गर्द - गुबार न खाई। तो रास्ते पर तुम चले ही नहीं, पहुंचे । पहुंचे भी। तब, तब तुम अचानक हैरान होओगे, चकित होओगे, कि जिसे तुम खोजते फिरते थे वह तुम्हारे भीतर था । वह परमात्मा का राज्य तुम्हारे हृदय के ही राज्य का 123
SR No.002379
Book TitleDhammapada 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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