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________________ केवल शिष्य जीतेगा जो बनाए, धन जो इकट्ठा किया, साम्राज्य जो फैलाया भूल हो गई गाफिल जिंदगी ही दुनिया थी भीतर की जिंदगी को जान लेते तो दुनिया को पा लेते। बाहर की दुनिया को पाने में लग गए, भीतर की जिंदगी गंवा दी। बाहर और भीतर में उतना ही फर्क है, जितना सत्य में और स्वप्न में। बाहर है स्वप्न का जाल, भीतर है साक्षी का निवास। जो दिखाई पड़ता है उस पर ध्यान मत दो, जो देखता है उस पर ध्यान दो। जो भोगा जाता है उस पर ध्यान मत दो, जो भोगता है उस पर ध्यान दो। आंख की फिकर मत करो, आंख के पीछे जो खड़ा देखता है उसकी फिकर करो। कान की फिकर मत करो, कान के पीछे खड़ा जो सुनता है उसकी फिकर करो। न जन्म की चिंता करो न मृत्यु की; चिंता करो उसकी जो जन्म में आता है और मृत्यु में जाता है। जो जन्म के भी पहले है और मृत्यु के भी बाद है। मरते क्षण में यह याद भी आए तो फिर क्या करोगे? जिनको पहले याद आ जाती है वे कुछ कर लेते हैं। हिचकियों पर हो रहा है जिंदगी का राग खत्म झटके देकर तार तोड़े जा रहे हैं मरते क्षण में तो फिर ऐसा ही लगेगा कि जिसको जिंदगी समझी हिचकियों पर हो रहा है जिंदगी का राग खत्म 'वे सारे स्वप्न, वे सारे गीत, वह सारा संगीत, हिचकियों में बदल जाता है। हिचकियां ही हाथ में रह जाती हैं। . हिचकियों पर हो रहा है जिंदगी का राग खत्म झटके देकर तार तोड़े जा रहे हैं । इसके पहले कि सब कुछ हिचकियों में बदल जाए, और इसके पहले कि तुम्हारा साज तोड़ा जाए, भीतर के गीत को गा लो। इसके पहले कि मौत शरीर को छीने, तुम उसे जान लो जिसे मौत छीन न सकेगी। इसके पहले कि बाहर का जगत खो जाए, तुम भीतर के जगत में पैर जमा लो। अन्यथा तुम सोए हुए गांव की तरह हो, बढ़ी हुई नदी की बाढ़ तुम्हें सोया-सोया बहा ले जाएगी। ___ 'जैसे भ्रमर फूल के वर्ण और गंध को हानि पहुंचाए बिना रस को लेकर चल देता है, वैसे ही मुनि गांव में भिक्षाटन करे।' । जीवन के गांव की बात है। बुद्ध कह रहे हैं, जैसे भ्रमर फूल के वर्ण और गंध को हानि पहुंचाए बिना रस को लेकर चल देता है, ऐसे ही तुम इस जिंदगी में रहो। जीवन जो रस दे सके, ले लो। मगर रस केवल वे ही ले पाते हैं जो जाग्रत हैं। शेष तो उन भौंरों की तरह हैं, जो रस लेने में इस तरह डूब जाते हैं कि उड़ना ही भूल जाते हैं। सांझ जब कमल की पखुड़ियां बंद होने लगती हैं तब वे उसी में बंद हो जाते हैं। उनके लिए कमल भी कारागृह हो जाते हैं। जैसे भ्रमर फूल के वर्ण और गंध को बिना हानि पहुंचाए रस लेकर चुपचाप 121
SR No.002379
Book TitleDhammapada 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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