SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ केवल शिष्य जीतेगा झोली को भरने को। अब कूड़ा-करकट से नहीं भरना है। अब जानकारी से नहीं भरना है। अब होश को मांगने आया हूं। विद्यार्थी ज्ञान मांगने आता है, शिष्य होश मांगने आता है। विद्यार्थी कहता है, और जानकारी चाहिए। शिष्य कहता है, जानकारी को क्या करेंगे, अभी जानने वाला ही मौजूद नहीं, जानने वाला चाहिए। 'कुशल शिष्य फूल की भांति सुदर्शित धर्मपथ को चुनेगा।' और जिसने जीवन का थोड़ा सा भी स्वाद लेना शुरू कर दिया, जिसके भीतर होश की किरण पैदा हुई, होश का चिराग जला, अब उसे दिखाई पड़ने लगेगा-कहां कांटे हैं, कहां फूल हैं। तुम्हें लोग समझाते हैं, बुरा काम मत करो। तुम्हें लोग समझाते हैं, पाप मत करो। तुम्हें लोग समझाते हैं, अनीति मत करो, बेईमानी मत करो, झूठ मत बोलो। मैं तुम्हें नहीं समझाता। मैं तुम्हें समझाता हूं, चिराग को जलाओ। अन्यथा पहचानेगा कौन कि क्या अनीति है, क्या नीति है? कौन जानेगा-कहां कांटे हैं, कहां फूल हैं? तुम अभी मौजूद ही नहीं हो। रास्ता कहां है, भटकाव कहां है, तुम कैसे जानोगे? तुम अगर दूसरों की मानकर चलते भी रहे तो तुम ऐसे ही होओगे, जैसे अंधा अंधों को चलाता रहे। न उन्हें पता है, न उनके आगे जो अंधे खड़े हैं उन्हें पता है। अंधों की एक कतार लगी है। वेद और शास्त्रों के ज्ञाताओं की कतार लगी है। और अंधे एक-दूसरे को पकड़े हुए चले जा रहे हैं। ___ किस बात को तुम कहते हो नीति? किस बात को तुम कहते हो धर्म? कैसे तुम जानते हो? तुम्हारे पास कसौटी क्या है? तुम कैसे पहचानते हो क्या सोना है क्या पीतल है? दोनों पीले दिखाई पड़ते हैं। हां, दूसरे कहते हैं यह सोना है, तो मान लेते हो। दूसरों की कब तक मानते रहोगे? दूसरों की मान-मानकर ही तो ऐसी गति हुई है, ऐसी दुर्गति हुई है। ___ धर्म कहता है, दूसरों की नहीं माननी है, अपने भीतर उसको जगाना है, जिसके द्वारा जानना शुरू हो जाता है और मानने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। चिराग जलाओ, ताकि तुम्हें खुद ही दिखाई पड़ने लगे-कहां गलत है, कहां सही है। मैंने सुना है, दो युवक एक फकीर के पास आए। उनमें से एक बहुत दुखी था। बड़ा बेचैन था। दूसरा ऐसा कुछ खास बेचैन नहीं था, प्रतीत होता था मित्र के साथ चला आया है। पहले ने कहा, हम बड़े परेशान हैं। हमसे बड़े भयंकर पाप हो गए हैं, उनसे छुटकारे का और प्रायश्चित्त का कोई मार्ग बताओ। उस फकीर ने पहले से पूछा कि तू अपने पापों के संबंध में कुछ बोल। तो उसने कहा, ज्यादा मैंने पाप नहीं किए, मगर एक बहुत जघन्य अपराध किया है। और उसका बोझ मेरी छाती पर एक चट्टान की तरह रखा है। दया करो, किसी तरह यह बोझ मेरा उतर जाए। मैं पछता रहा हूं, भूल हो गई। लेकिन अब क्या करूं, जो हो गया हो गया। वह रोने लगा, 113
SR No.002379
Book TitleDhammapada 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy