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________________ एस धम्मो सनंतनो आकांक्षा किसकी नहीं है? दुख से दूर हटने का भाव किसके मन में नहीं उठता? लेकिन बुद्ध पूछते हैं, कौन जीतेगा? कौन उपलब्ध होगा फूलों से भरे धर्मपथ को? तुम जैसे हो वैसे न हो सकोगे। तुम सोए हो। तुम्हें खबर ही नहीं, तुम कौन हो। फूल और कांटे का भेद तो तुम कैसे करोगे? सार-असार को तुम कैसे अलग करोगे? सार्थक-व्यर्थ को तुम कैसे छांटोगे? तुम सोए हो। तुम्हारे स्वप्नों में अगर तुमने फूल और कांटे अलग भी कर लिए, तो जागकर तुम पाओगे दोनों खो गए। सपने के फूल और सपने के कांटों में कोई फर्क नहीं। इसलिए असली सवाल तुम्हारे जागने का है। उसके बाद ही निर्णय हो सकेगा। नींद में तुम मंदिर जाओ कि मस्जिद, सब बेकार। कुरान पढ़ो कि वेद, सब व्यर्थ। नींद में तुम बुद्धपुरुषों को सुनते रहो, कुछ हल न होगा। तुम्हें जागना पड़ेगा। क्योंकि जागकर ही तुम सुनोगे तभी तुम समझ सकोगे। सुन लेना समझने के लिए काफी नहीं है। नींद अगर भीतर घिरी हो, तो तुम्हारे कान सुनते भी रहेंगे और तुम यह मानते भी रहोगे कि मैं सुन रहा हूं, फिर भी तुमने कुछ सुना नहीं। तुम बहरे के बहरे रह गए। अंधे के अंधे रहे। तुम्हारे जीवन में कोई क्रांति उससे पैदा न हो सकेगी। ___'कौन इस पृथ्वी और देवताओं सहित इस यमलोक को जीतेगा? कौन कुशल पुरुष फूल की भांति सुदर्शित धर्मपथ को चुनेगा?' ___ 'शिष्य-शैक्ष—इस पृथ्वी और देवताओं सहित इस यमलोक को जीतेगा। कुशल शैक्ष—कुशल शिष्य-फूल की भांति सुदर्शित धर्मपथ को चुनेगा।' शिष्य को समझना होगा। बुद्ध का जोर शिष्य पर उतना ही है, जितना नानक का था। इसलिए नानक का पूरा धर्म ही सिक्ख धर्म कहलाया-शिष्य का धर्म। सिक्ख यानी शिष्य। सारा धर्म ही सीखने की कला है। तुम सोचते भी हो बहुत बार कि तुम सीखने को तैयार हो, लेकिन मुश्किल से कभी मुझे कोई व्यक्ति मिलता है जो सीखने को तैयार है। क्योंकि सीखने की शर्ते ही पूरी नहीं हो पातीं। सीखने की पहली शर्त तो यह समझना है कि तुम जानते नहीं हो। अगर तुम्हें जरा सी भी भ्रांति है कि तुम जानते ही हो, तो तुम सीखोगे कैसे? सीखने के लिए जानना जरूरी है कि मैं अज्ञानी हूं। ज्ञान को निमंत्रण देने के लिए यह बुनियादी शर्त है। इसके पहले कि तुम पुकारो ज्ञान को, इसके पहले कि तुम अपना द्वार खोलो उसके लिए, तुम्हें बड़ी गहन विनम्रता में यह स्वीकार कर लेना होगा कि मैं नहीं जानता हूं। ___ इसलिए पंडित शिष्य नहीं हो पाते। और दुनिया जितनी ही जानकार होती जाती है उतना ही शिष्यत्व खोता चला जाता है। पंडित जान ही नहीं सकता। यह बड़ी विरोधाभासी बात मालूम पड़ती है। क्योंकि हम तो सोचते हैं, पंडित जानता है। पंडित अकेला है जो नहीं जान सकता। अज्ञानी जान ले भला, पंडित के जानने का कोई उपाय नहीं। क्योंकि पंडित तो मानकर बैठा है कि मैं जानता ही हूं। 108
SR No.002379
Book TitleDhammapada 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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