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अनंत छिपा है क्षण में
एहसान नाखुदा का उठाए मेरी बला अब ये मांझी का और कौन एहसान उठाए ?
कश्ती खुदा पर छोड़ दूं लंगर को तोड़ दूं लंगर भी तोड़ देता हूं, कश्ती भी उस पर छोड़ देता हूं। यह है तथाता। अब वह जहां ले जाए। अब अगर मझधार में डुबा दे तो वही किनारा है। अब डूबना भी उबरना है। स्वीकार में फासला कहां? अब न पहुंचना भी पहुंचना है। स्वीकार में फासला कहां? अब होना और न होना बराबर है। अब मंजिल और मार्ग एक है। अब बीज और वृक्ष एक है। अब सृष्टि और प्रलय एक है। क्योंकि वे सारे भेद बीच में अहंकार खड़ा होकर करता था। सारे भेद अहंकार के हैं। अभेद निरअहंकार का है।
एहसान नाखुदा का उठाए मेरी बला
कश्ती खुदा पर छोड़ दूं लंगर को तोड़ दूं ऐसी मनोदशा परमावस्था है। और ऐसी परम अवस्था में साधन, साध्य का कोई भेद नहीं। सृष्टि, स्रष्टा का कोई भेद नहीं। जीवन, मृत्यु का कोई भेद नहीं। एक के ही अलग-अलग चेहरे हैं।
फिर तुम जहां हो वहीं मंजिल है। फिर कहीं और जाने को भी नहीं है। जाना भी अहंकार का ही खयाल है। पहुंचने की आकांक्षा भी अहंकार की ही दौड़ है। वह भी महत्वाकांक्षा ही है।
चौथा प्रश्न :
क्या क्षणभंगुरता का बोध ही जीवन में क्षण-क्षण जीने की कला बन जाता है?
नि श्चि त ही! जैसे-जैसे ही तुम जागोगे और देखोगे कि एक क्षण के
अतिरिक्त हाथ में कोई दूसरा क्षण नहीं है-दो क्षण किसी के पास एक साथ नहीं होते। एक क्षण आता है, जाता है, तब दूसरा आता है—एक ही क्षण हाथ में है।
सारे जीवन की कला यही है कि इस एक क्षण में कैसे जी लो। कैसे यह एक क्षण ही तुम्हारा पूरा जीवन हो जाए। कैसे इस एक क्षण की इतनी गहराई में उतर जाओ कि यह क्षण शाश्वत और सनातन मालूम हो। एक क्षण से दूसरे क्षण पर जाना साधारण जीवन का ढंग है। और एक क्षण की गहराई में उतर जाना असाधारण जीवन का ढंग है।