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एस धम्मो सनंतनो
भी तुम ही होते हो। तो बीमारी और स्वास्थ्य तुम्हारे दो होने के ढंग हैं। बीमारी बेचैनी है। बीमारी एक पीड़ा है। बीमारी एक दुख है, दर्द है। स्वास्थ्य एक शांति है। जैसे भटका-भूला घर लौट आया। जैसे थके-मांदे को वृक्ष की छाया मिली। स्वास्थ्य सुख है। वह भी तुम्हारे होने का ढंग है।
तो एक तो तुम्हारे होने का ढंग मनुष्य है। वह यानी बीमारी, मन। और एक तुम्हारे होने का ढंग ध्यान है, स्वास्थ्य है, परमात्मा है। तुम ही जब स्वस्थ होते हो, परमात्मा हो जाते हो। तुम्हीं जब बीमार होते हो, आदमी हो जाते हो।'
लहर शांत है। पूरा चांद आकाश में है। झील पर कोई लहरें नहीं उठतीं। दर्पण बन गयी है झील, चांद पूरा का पूरा दिखायी पड़ता है। फिर हवा का एक झोंका। लहर उठ गयी। झील कंप गयी, दर्पण खंडित हो गया। चांद हजार-हजार टुकड़ों में टूट गया। झील बही है। चांद वही है। लेकिन कंपती हुई झील बीमार झील है। तुम वही हो। परमात्मा वही है। सत्य वही है। सिर्फ तुम कंप रहे हो। यह कंपते हुए चैतन्य का नाम मन है। और अकंप चैतन्य का नाम ध्यान है। जब झील चुप हो जाती है, लहर नहीं उठतीं, तुम शांत होते हो।।
ऐसा थोड़े ही है कि शांत अवस्था में परमात्मा से मिलन होता है। यह तो मन की ही बातचीत है। यह तुम साथ मत ले जाना।
इसलिए बुद्ध कहते हैं, इस चर्चा को मत चलाओ। इससे कुछ लाभ तो होता नहीं, हानि बहुत हो जाती है। इससे किसी की कुछ समझ में तो आता नहीं, नासमझी बहुत बढ़ जाती है। यह बात ही मत चलाओ। बस इतना ही कहो संक्षिप्त में, कि कैसे यह मन शांत हो जाए। कैसे ये लहरें सो जाएं। कैसे झील स्वस्थ हो जाए। कैसे प्रतिबिंब बन सके परमात्मा का उसमें। __ प्रतिबिंब, यह भी सब बातचीत है। लेकिन कठिनाई यह है कि किसी भी तरह से उस तरफ इशारा करो, शब्द को लाना पड़े। मगर असलियत यह है कि जब झील पूरी शांत होती है तो चांद ही हो जाती है। अब इसे कैसे कहो? जब तुम पूरे शांत होते हो तो परमात्मा से मिलना नहीं होता, तुम परमात्मा हो जाते हो। अशांति में तुम मनुष्य समझते हो अपने को, परमात्मा नहीं समझ पाते। कैसे समझोगे? इतनी पीड़ा में, और तुम परमात्मा! इतनी दीनता में, और तुम परमात्मा! मनुष्य दीन है। अपने को ईश्वर कैसे मानेगा। ईश्वर तो तभी मान सकता है जब जीवन में परम ऐश्वर्य प्रगट हो। जब भीतर वैभव उठे। और जब भीतर ऐसी घड़ी आए कि लगे कि सब कुछ तुम्हारा है। सब तुम हो। चांद-तारे तुम्हारे भीतर घूमते हैं। और तुम्हारे ही हाथ के इशारे से जगत चलता है। तुम इस जगत की प्राण-प्रतिष्ठा हो। तुम इसके केंद्र पर हो। तुम ऐसे ही अजनबी नहीं हो। तुम कोई बिन बुलाए मेहमान नहीं हो। तुम घर के मालिक हो। तुम मेहमान नहीं हो, मेजबान हो।
झेन फकीर कहते हैं कि मनुष्य की दो अवस्थाएं हैं। एक, कि वह अपने को
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