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ध्यानाच्छादित अंतर्लोक में राग को राह नहीं
पड़े हो। जो मिल जाए तो कुछ न होगा, और न मिले तो प्राण खाए जा रहा है। गैर-जरूरी वही है जिसके मिलने से कुछ भी न मिलेगा, लेकिन जब तक नहीं मिला है तब तक रात की नींद हराम हो गयी है। तब तक सो नहीं सकते, शांति से बैठ नहीं सकते, क्योंकि मन में एक ही उथल-पुथल चल रही है कि घर में दो कार होनी चाहिए। एक कार गरीब आदमी के घर में होती है । दो कार होनी चाहिए ।
पहले अमरीका में वे विज्ञापन करते थे कि कम से कम घर में एक कार होनी ही चाहिए। अब इतनी कारें तो घरों घरों में हो गयी हैं- एक-एक कार तो हर घर
है। तब उन्होंने दूसरा विज्ञापन शुरू किया कि एक कार तो गरीब घर में होती है। अगर तुम सफल हो, तो कम से कम दो कार घर में होनी चाहिए। अब दो कार घर में होनी चाहिए ! चाहे एक में भी बैठने वाले पर्याप्त न हों। लेकिन दो कार घर में होनी ही चाहिए। नहीं तो वह प्रतिष्ठा का सवाल है । अब कार कोई बैठने के लिए नहीं खरीदता अमरीका में, वह प्रतिष्ठा की बात है, वह प्रेस्टिज, पावर । उससे शक्ति का पता चलता है कि तुम कितने शक्तिशाली हो ।
अब उन्होंने वहां प्रचार करना शुरू किया है कि अगर तुम सफल हो गए हो, तो एक घर पहाड़ पर, एक घर समुद्र के तट पर और एक घर शहर में, कम से कम तीन घर तो होने ही चाहिए। आदमी एक ही घर में रह सकता है ! तुम्हारे पास कितने कपड़े हैं? तुमने कितने इकट्ठे कर रखे हैं? कितने कपड़े तुम एक बार में पहन सकते हो ? कितने जूते के अंबार लगा रखे हैं तुमने ?
मैं घरों में ठहरता रहा हूं। कभी-कभी दंग होता हूं। भगवान की मूर्ति के लिए जगह नहीं है, जूतों के लिए अलमारियां लगा रखी हैं। एक जूता तुम पहनते हो । इतने जूते अनिवार्य नहीं हैं। जरा भी आवश्यक नहीं हैं। व्यर्थ इनको झाड़ना-पोंछना पड़ता है। तुम नाहक चमार बन गए हो। सुबह से इनको नाहक पोंछो, झाड़ो, तैयार करके रखो, एक तुम पहनोगे। लेकिन कोई तुम्हें समझा रहा है कहीं से, कि ऐसा होना चाहिए ।
तुम अगर अपने जीवन की फेहरिश्त बनाओ कि तुमने कितना गैर-जरूरी इकट्ठा कर लिया है, तो तुम नब्बे प्रतिशत गैर-जरूरी पाओगे । और उस नब्बे प्रतिशत के लिए तुमने कितना श्रम उठाया ! कितनी चिंता ली ! कितने व्याकुल हुए ! कितना व्यर्थ जीवन गंवाया ! और अगर तुमसे कोई कहे ध्यान, इबादत, प्रार्थना, तुम कहते हो समय कहां है? समय है नहीं । समय होगा भी कैसे! क्योंकि व्यर्थ के लिए इतना समय दिया जा रहा है ।
बुद्ध ने कहा है, जिस व्यक्ति को भी यह समझ में आ गया कि विषयों में रस नहीं है, वह संयत होने लगता है, अपने आप संयत होने लगता है। तब उसका जीवन वासनाग्रस्त नहीं होता। आवश्यकता से निश्चित ही मर्यादित होता है, लेकिन वासना से ग्रस्त नहीं होता । आवश्यकता की सीमा है। वासना की कोई सीमा नहीं । वासना
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