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________________ ध्यानाच्छादित अंतर्लोक में राग को राह नहीं जीवन में थोड़ी सी भी किरण उतरी है, अगर तुमने थोड़ा सा भी जाना है कि चैतन्य का शांत हो जाना क्या है, तुमने अगर अपने भीतर बैठने और खड़े होने की कला थोड़ी सी भी सीखी है, और उस घड़ी में-जब एक सुंदर युवती पास से निकली या एक सुंदर युवक पास से निकला–अगर तुम अपने भीतर ध्यान में खड़े रहे, तो तुम पाओगे कि उस स्त्री का सौंदर्य, वह जीवन की धारा तुम्हें निखार गयी, तुम्हें ताजा कर गयी, तुम्हें प्रफुल्लित कर गयी। जैसे आंधी निकल गयी हो और वृक्ष पर जमी हुई धूल वर्षों की झड़ गयी हो। वृक्ष और ताजा हो गया। जीवन को देखने के ढंग पर सब कुछ निर्भर है। अगर तुम्हारे देखने का ढंग गलत है, तो जीवन तुम्हारे साथ जो भी करेगा वह गलत होगा। तुम्हारा देखने का ढंग सही है, तो जीवन तो यही है, कोई और दूसरा जीवन नहीं है, लेकिन तब तुम्हारे साथ जो भी होगा वही ठीक होगा। बुद्ध भी इसी पृथ्वी से गुजरते हैं, तुम भी इसी पृथ्वी से गुजरते हो। यही चांद-तारे हैं। यही आकाश है। यही फूल हैं। लेकिन एक के जीवन में रोज पवित्रता बढ़ती चली जाती है। एक रोज-रोज निर्दोष होता चला जाता है। निखरता चला जाता है। और दूसरा रोज-रोज दबता चला जाता है, बोझिल होता जाता है, धूल से भरता जाता है, अपवित्र होता जाता है, गंदा होता जाता है। मृत्यु जब बुद्ध को लेने आएगी तो वहां तो पाएगी मंदिर की पवित्रता, वहां तो पाएगी मंदिर की धूप, मंदिर के फूल। वहां तो पाएगी एक कुंवारापन, जिसको कुछ भी विकृत न कर पाया। जैसा कबीर ने कहा है, ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया। तो बुद्ध तो चादर को वैसा का वैसा रख देंगे। मुझे तो लगता है कि कबीर ने जो कहा, वह थोड़ा अंडरस्टेटमेंट है। वह अतिशयोक्ति तो है ही नहीं, सत्य को भी बहुत धीमे स्वर में कहा है। क्योंकि मेरी दृष्टि ऐसी है कि जब बुद्ध चादर को लौटाएंगे तो वह और भी पवित्र होगी। उससे भी ज्यादा पवित्र होगी जैसी उन्होंने पायी थी। होनी ही चाहिए। क्योंकि जैसे अपवित्रता बढ़ती है और विकासमान है, वैसे ही पवित्रता भी बढ़ती है और विकासमान है। जो पवित्रता बुद्ध को बीज की तरह मिली थी, बद्ध उसे एक बड़े वृक्ष की तरह लौटाएंगे। जीसस एक कहानी कहते थे, कि एक बाप चिंतित था। तीन उसके बेटे थे और बड़ा उसके पास धन, बड़ी समृद्धि थी। कुछ तय न कर पाता था, किस बेटे को मालिक बनाए। तो उसने एक तरकीब की। उसने तीनों बेटों को बलाया और तीनों बेटों को समान मात्रा में फूलों के बीज दिए और कहा कि मैं तीर्थयात्रा को जा रहा हूं, इनको तुम सम्हालकर रखना। जब मैं वापस आऊं, तो मुझे वापस लौटा देना। और ध्यान रहे, इस पर बहुत कुछ निर्भर है। इसलिए लापरवाही मत करना। ये बीज ही नहीं हैं, तुम्हारा भविष्य! बाप तीन वर्ष बाद वापस लौटा। बड़े बेटे ने सोचा कि इन बीज को कहां
SR No.002378
Book TitleDhammapada 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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