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________________ ध्यानाच्छादित अंतर्लोक में राग को राह नहीं विफलता का ढेर लग जाता है । और वही ढेर तुम्हारी कब्र बन जाता है। जब तक विषय में रस है और ऐसा दिखायी पड़ता है कि वहां सुख है; जब तक आंख भीतर नहीं मुड़ी और यह नहीं दिखायी पड़ा कि सुख मैंने डाला है, वह मेरी दृष्टि है, मैं जहां डालूं वहां सुख होगा; और जब मुझे यह समझ में आ जाए कि सुख मुझमें ही है - तो फिर डालने का सवाल क्या – मैं अपने में डूब जाऊं तो महासुख होगा, आनंद होगा। जब तक वैसी घड़ी नहीं घटती, तब तक इंद्रियां असंयत होंगी। जब दृष्टि ही भ्रांत है तो संयम नहीं हो सकता। संयम तो संतुलित दृष्टि का परिणाम है। संयम तो सम्यक दृष्टि का परिणाम है । सम्यक का अर्थ है, जहां है वहां दिखायी पड़े, जहां नहीं है वहां दिखायी न पड़े। तो फिर खोज सार्थक हो जाती है। तो उपलब्धि होती है, तो सिद्धि होती है, तो जीवन में सुख के फूल लगते हैं, तो आनंद का अहोभाव पैदा होता है। 'विषय - रस में सुख देखते हुए विहार करने वाले, इंद्रियों में असंयत, भोजन में मात्रा न जानने वाले, आलसी और अनुद्यमी पुरुष को मार वैसे ही गिरा देता है जैसे आंधी दुर्बल वृक्ष को ।' मार बुद्ध का शब्द है, कामवासना के देवता के लिए। यह शब्द बड़ा अच्छा है। यह राम का बिलकुल उलटा है। अगर राम को उलटा करके लिखें तो म, फिर बड़े अ की मात्रा, और फिर र । ठीक उलटा हो जाए तो मार हो जाता है। मार बुद्ध का शब्द है, कामवासना के देवता के लिए। और दो ही चित्तदशाएं हैं। या तो मार से प्रभावित, या राम से आंदोलित । या तो तुम भीतर की तरफ चलो, तब तुम राम तरफ चले; या तुम बाहर की तरफ चलो, तब तुम मार की तरफ चले । ‘मार उस व्यक्ति को वैसे ही गिरा देता है जैसे आंधी दुर्बल वृक्ष को ।' कामवासना का देवता शक्तिशाली नहीं है, तुम दुर्बल हो । इस बात को ठीक से स्मरण रखो। कामवासना का देवता शक्तिशाली नहीं है। और अगर तुम गिर गए हो, तो उसकी शक्ति के कारण नहीं गिरे हो। तुम गिरे हो अपनी दुर्बलता के कारण। जैसे कि कोई सूखा जड़ से टूटा वृक्ष, दुर्बल हुआ, दीन- जर्जर हुआ, वृद्ध हुआ, आंधी में गिर जाता है। आंधी न भी आती तो भी गिरता । आंधी तो बहाना है। आंधी तो मन समझाने की बात है। क्योंकि ऐसे ही गिर गए बिना किसी के गिराए, तो चित्त को और भी पीड़ा होगी । न भी आंधी आती तो वृक्ष गिरता ही । अपनी ही दुर्बलता गिराती है। दूसरे की सबलता का सवाल नहीं है। क्योंकि वस्तुतः वहां कोई वासना का देवता खड़ा नहीं है, जो तुम्हें गिरा रहा है। तुम ही गिरते हो । अपनी दुर्बलता से गिरते हो । और आदमी दुर्बल कैसे हो जाता है ? जो जहां नहीं है वहां खोजने से धीरे-धीरे अपने पर आस्था खो जाती है । व्यर्थ में सार्थक को खोजने से और न पाने से आत्मविश्वास डिग जाता है। पैर लड़खड़ा जाते हैं। और जीवनभर असफलता हाथ I 63
SR No.002378
Book TitleDhammapada 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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