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________________ एस धम्मो सनंतनो उस अंतर्यात्रा को ही बुद्ध ने योग कहा है। 'विषय - रस में शुभ देखते हुए विहार करने वाले, इंद्रियों में असंयत... ।' और जब तुम विषय-रस में देखोगे रस, विषय में देखोगे रस, तब तुम्हारी इंद्रियां अपने आप असंयत हो जाएंगी। क्योंकि मन चाहता है, भोग लो जितना ज्यादा भोग सको। कुछ चूक न जाए। समय भागा जाता है। जीवन चुका जाता है। मौत करीब आती चली जाती है। कुछ छूट न जाए। कुछ ऐसा न रह जाए कि मन में पछतावा रहे कि भोग न पाए। तो भोग लो, ज्यादा से ज्यादा भोग लो। उस ज्यादा की दौड़ से असंयम पैदा होता है। आंख थक जाती है, तो भी तुम रूप को देखे चले जाते हो। जीभ थक जाती है, तो भी तुम भोजन किए चले जाते हो । पेट और लेने को तैयार नहीं है, फिर भी तुम भरे चले जाते हो तब रस तो दूर रहा, विरस पैदा होता है। ज्यादा खाने से कोई आनंदित नहीं होता, पीड़ित होता है। ज्यादा देखने से आंखें सौंदर्य से नहीं भरतीं, सिर्फ थक जाती हैं, धूमिल हो जाती हैं। ज्यादा दौड़ने से, धन-वस्तुएं इकट्ठी करने से भीतर एक तरह की रिक्तता बढ़ती जाती है, कुछ भराव नहीं आता। लेकिन मरते दम तक आखिरी क्षण तक आदमी भोग लेना चाहता है। मैंने सुना है गो हाथ को जुंबिश नहीं आंखों में तो दम है रहने दे अभी सागर-ओ-मीना मेरे आगे मर रहे हो, हाथ नहीं हिल सकता हाथ को जुंबिश नहीं आंखों में तो दम है अभी देख तो सकता हूं। इसलिए शराब की प्याली तुम मेरे सामने से मत हटाओ। हाथ बढ़ाकर पी भी नहीं सकता । रहने दे अभी सागर-ओ-मीना मेरे आगे पर देख तो सकता हूं। मरते दम तक, जब तक आखिरी श्वास चलती है, तब तक भोग का रस बना रहता है। वह छूटता ही नहीं । जवानी चली जाती है, बुढ़ापा घेर लेता है, लेकिन मन जवान ही बना रहता है। मन उन्हीं तरंगों से भरा रहता है, जो जवानी में तो संगत भी हो सकती थीं— तूफान था। अब तो तूफान भी जा चुका, तूफान के चिह्न रह गए हैं रेत के तट पर बने, याददाश्त रह गयी है । लेकिन याददाश्त भी भरमाती है, सपने नाती है । मन में तो व्यक्ति जवान ही बना रहता है। मौत आ जाती है, लेकिन भीतर आदमी जीवन के रस में ही डूबा रहता है। तब दुख न हो तो क्या हो ? - 1 दुख का अर्थ है, जहां नहीं था वहां खोजा । दुख का और क्या अर्थ है ? रेत से तेल निकालने की चेष्टा की। आकाश कुसुम तोड़ने चाहे, जो थे ही नहीं । खरगोश के सींग खोजे, जो थे ही नहीं। दुख का इतना ही अर्थ है, जो नहीं हो सकता था उसकी कामना की। फिर हाथ खाली रह जाते हैं, मन बुझा-बुझा । सब तरफ 62
SR No.002378
Book TitleDhammapada 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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