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अस्तित्व की विरलतम घटना : सदगुरु
जाते – अनत्ता, अनात्मा । आत्मा तक खो जाती है। दूसरे की तो फिक्र छोड़ें, बुद्ध कहते हैं, तुम भी नहीं बचते । कुछ बचता है, जिसको शब्द देने का उपाय नहीं । अनिर्वचनीय है। शून्य जैसा कुछ। लेकिन न तुम होते, न कोई दूसरा होता । पर प्राथमिक चरण पर इसका उपयोग है।
मेरा भी अनुभव यही है कि मैंने लोगों को अकेले-अकेले भी ध्यान करवा कर देखा, गति नहीं होती। लेकिन साथ अगर वे ध्यान करते हैं, एक दफा गति हो जाती है, फिर तो वे खुद ही कहते हैं कि अब हम अकेले करना चाहते हैं। साथ से शुरुआत सुगमता से हो जाती है। तुम साहस भी जुटा पाते हो। तुम थोड़े पागल होने की हिम्मत भी जुटा पाते हो। तुम थोड़े आनंदित होने की हिम्मत भी जुटा पाते हो। जब हजार लोग नाचते हैं, तो तुम्हारे पैर में भी कोई नाचने लगता है। तब रोके नहीं रुकता। और जब हजार लोग आह्लादित होते हैं, तो उनका आह्लाद संक्रामक हो जाता है। बीमारी ही संक्रामक नहीं होती, स्वास्थ्य भी संक्रामक होता है । और जब दस लोग उदास बैठे हों, तो उनके बीच तुम भी उदास हो जाते हो। और जब दस लोग हंसते हैं, तो उनके बीच तुम भी हंसने लगते हो।
बुद्ध को यह समझ में आ गया। बुद्ध ने पहला संघ बनाया, क्योंकि उन्हें यह बात समझ में आ गयी कि आदमी इतना कमजोर हो गया है कि अकेला जान सकेगा। यात्रा अकेले की है; पर अकेला जा न सकेगा। संग-साथ हिम्मत बढ़ जाएगी।
आखिरी प्रश्न :
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हमें आपके शब्दों में कोई श्रद्धा नहीं बैठती और आपके सारे शब्द झूठ प्रतीत होते हैं । फिर भी यहां से चले जाने का मन क्यों नहीं होता है?
ह पूछा है आनंद सरस्वती ने ।
शब्द ही मेरे ऐसे हैं कि श्रद्धा बैठ न सकेगी। क्योंकि मैं उस दुनिया की बात नहीं कर रहा हूं जिस पर तुम्हें श्रद्धा है, और जिस पर श्रद्धा तुम्हें आसानी से बैठ जाए। मैं जो कह रहा हूं वह तुम्हारे सिर के ऊपर से निकल जाता है । तुम्हें जरा अपने सिर को ऊंचा करना पड़ेगा।
दो ही उपाय हैं। या तो मैं जो कह रहा हूं उसे नीचा करूं; तब मैं व्यर्थ हो जाऊंगा, उसका कोई सार न रहेगा। दूसरा उपाय है कि तुम जरा अपना सिर ऊपर करो। तुम जरा ऊपर उठो । हर आदमी ऐसा सोचता है मन में कि जैसे श्रद्धा तो उसके
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