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________________ अस्तित्व की विरलतम घटना : सदगुरु अर्थ हुआ कि आचरण जबर्दस्ती होगा। ईश्वर से डरने का तो कोई भी कारण नहीं है। संसार से भला डरो, क्योंकि यहां उपद्रवी हैं, सब तरह के दुष्ट हैं। शैतान से डरो, एक दफा समझ में आ जाए; परमात्मा से डरते हो? परमात्मा यानी प्रेम। प्रेम से कहीं डर का कोई संबंध बन सकता है? जहां प्रेम है वहां डर कैसा? और जहां डर है वहां प्रेम कैसा? भय के पास प्रेम की गंध नहीं उठ सकती। और प्रेम के पास भय की दुर्गंध नहीं आती। लेकिन धर्मों ने लोगों को डरना सिखाया है कि डरो। लोगों को कंपा दिया है। बुद्ध ने लोगों को फुसलाया; धमकाया नहीं। बुद्ध ने कहा, सोचो। बुद्ध ने कहा, विचार करो। बुद्ध ने कहा, जीवन को अनुभव करो, विश्लेषण करो। बुद्ध ने विज्ञान दिया, अंधविश्वास नहीं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि बुद्ध ने श्रद्धा नहीं दी। बुद्ध ने ही श्रद्धा दी। ऐसे सोच-विचार जब तुम करने लगोगे, अचानक एक दिन तुम पाओगे श्रद्धा का पड़ाव आ गया। सोच-विचार की यात्रा से ही कोई श्रद्धा तक पहुंचता है। .. इसे थोड़ा समझो, यह विरोधाभासी लगेगा। बिना सोचे-विचारे तो कोई कभी श्रद्धा तक नहीं पहुंचता; एक बात। दूसरी बात, सिर्फ सोच-विचार से भी कोई कभी श्रद्धा तक नहीं पहुंचता। और तीसरी बात, सोच-विचार करते-करते एक घड़ी आती है, आदमी सोच-विचार के आगे चला जाता है। सोच-विचार के पहले श्रद्धा नहीं है। सोच-विचार के मध्य श्रद्धा नहीं है। लेकिन सोच-विचार के आगे चला जाता है। कब तक सोचोगे? सोचने की सीमा है। तुम्हारी सीमा नहीं है। जल्दी ही तुम पाओगे, सोचने का तो अंत आ गया, तुम अब भी हो। सोचना तो पिछड़ने लगा, तुम्हारे पैर आगे बढ़े जाते हैं। बुद्ध वहीं ले जा रहे हैं। बुद्ध कहते हैं, घबड़ाओ मत, बुद्धि की तो सीमा है। डरो मत, तुम असीम हो। अगर तुम चले, तो जल्दी ही बुद्धि का चुकतारा आ जाएगा। जगह आ जाएगी जहां तख्ती लगी है कि यहां बुद्धि समाप्त होती है। . तो बुद्ध कहते हैं, श्रद्धा दो तरह की हो सकती है। एकः बिना विचारे। विचार में गए बिना पहले ही स्वीकार कर ली। वह झूठी है। वह मिथ्या है। उसको ही हम अंध-श्रद्धा कहें। वह आंख वाले की नहीं है। और ऐसी श्रद्धा सदा कमजोर रहेगी। और ऐसी श्रद्धा कभी भी तोड़ी जा सकती है। कोई भी हिला देगा। कोई भी जीवन का तथ्य मिटा देगा ऐसी श्रद्धा को। दो कौड़ी की है, इसको कोई मूल्य मत देना। और इस श्रद्धा से तुम मुक्त न होओगे। इस श्रद्धा से तुम बंध जाओगे। यह जंजीर की तरह तुम्हें घेर लेगी। जिसको तुमने अपने अनुभव से नहीं पाया, उसे तुम अपनी संपदा मत समझना। यह अविचार की श्रद्धा है। फिर विचार में चलो। तो तुम डरते हो विचार में चलने से, क्योंकि अक्सर लोग विचार में अटक जाते हैं। काफी नहीं चलते, दूर तक नहीं चलते, दो कदम चलते हैं 39
SR No.002378
Book TitleDhammapada 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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