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________________ अस्तित्व की विरलतम घटना : सदगुरु ताब मंजिल रास्ते में मंजिलें थीं सैकड़ों उस असली मंजिल के मार्ग पर बहुत सी मंजिलें मिलेंगी रास्ते में; कभी धन की, कभी पद की, कभी प्रतिष्ठा की, यश की; अहंकार बहुत से खेल रचेगा। हर कदम पर एक मंजिल थी मगर मंजिल न थी और हर कदम पर मंजिल मिलेगी। लेकिन मंजिल इतनी सस्ती नहीं है। अगर बहुत होश रखा तो ही तुम इन मंजिलों से बचकर मंजिल तक पहुंच पाओगे। कठिन यात्रा है, दूभर मार्ग है। बड़ी चढ़ायी है। उत्तुंग शिखरों पर जाना है। घाटियों में रहने की आदत है। मूर्छित होना जीवन का स्वभाव हो गया है। होश कितना ही साधो, सधता नहीं। बेहोशी इतनी प्राचीन हो गयी है कि तुम होश का भी सपना देखने लगते हो बेहोशी में, जैसे कोई रात नींद में सपना देखे कि जाग गया हूं। सपना देखता है कि जाग गया। मगर यह जागना भी सपने में ही देखता है। ऐसे ही बहुत बार तुम्हें लगेगा, होश आ गया। लेकिन होश रखना ता ब मंजिल रास्ते में मंजिलें थीं सैकड़ों हर कदम पर एक मंजिल थी मगर मंजिल न थी कैसे पहचानोगे कि मंजिल आ गयी? कैसे पहचानोगे कि यह मंजिल मंजिल नहीं है? __एक कसौटी खयाल रखना। अगर ऐसा लगे कि जो सामने अनुभव में आ रहा है, वह तुमसे अलग है, तो समझना कि अभी असली मंजिल नहीं आयी। प्रकाश दिखायी पड़े, अभी मंजिल नहीं आयी। कुंडलिनी जाग जाए, अभी मंजिल नहीं आयी। ये भी अनुभव हैं। ये भी शरीर के ही अनुभव हैं, मन के अनुभव हैं। परमात्मा सामने दिखायी पड़ने लगे, याद रखना मंजिल नहीं आयी। क्योंकि परमात्मा तो देखने वाले में छिपा है, कभी दिखायी नहीं पड़ेगा। जो दिखायी पड़ेगा वह तुम्हारा सपना है। __इसको तुम सूत्र समझोः जो दिखायी पड़े, अनुभव में आए, वह सपना। जिस दिन कुछ दिखायी न पड़े, कुछ अनुभव में न आए; केवल तुम्हारा चैतन्य रह जाए, देखने वाला बचे; दृश्य खो जाएं, द्रष्टा बचे; दृश्य खो जाएं, कुछ दिखायी न पड़े, बस तुम रह जाओ; ना-कुछ तुम्हारे चारों तरफ हो-इसको बुद्ध ने निर्वाण कहा है-शुद्ध चैतन्य रह जाए; दर्पण रह जाए, प्रतिबिंब कोई न बने; तब तुम भोग के बाहर गए। अन्यथा सभी अनुभव भोग हैं। कोई किसी पत्नी को भोग रहा है; कोई कृष्ण बांसुरी बजा रहे हैं, उनके दृश्य को भोग रहा है। सब भोग है। जहां तक दूसरा है, वहां तक भोग है। जब तुम बिलकुल ही अकेले बचो, शुद्धतम कैवल्य रह जाए, होश मात्र बचे-किसका होश, ऐसा नहीं; चैतन्य मात्र बचे-किसकी चेतना, ऐसा नहीं; कुछ जानने को न हो, कुछ देखने को न हो, कुछ अनुभव करने को न हो—उस घड़ी आ गयी मंजिल। 35
SR No.002378
Book TitleDhammapada 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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