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आत्मक्रांति का प्रथम सूत्र : अवैर
में मत पड़ना। मनोदशाएं हैं। स्टेट्स आफ माइंड। ___ जब तुम सारे जगत को मित्र की तरह देखते हो-ऐसा नहीं कि सारा जगत मित्र हो जाएगा, इस भूल में मत पड़ना–लेकिन तुम जब सारे जगत को मित्र की भांति देखते हो, तुम्हारे लिए जगत मित्र हो गया, तुम्हारे शत्रु समाप्त हो गए। और अगर कोई तुम्हारी शत्रुता करेगा, तो वह शत्रुता उसके मन में होगी, वह उसकी पीड़ा पाएगा। लेकिन तुम्हें कोई पीड़ा नहीं दे सकता।
_ 'इस संसार में वैर से वैर कभी शांत नहीं होता। अवैर से ही वैर शांत होता है। यही सनातन धर्म है, यही नियम है।'
नहि वेरेन वेरामि सम्मन्तीध कुदाचनं। अवेरेन च सम्मन्ति एस धम्मो सनंतनो।।
यही सनातन धर्म है। शत्रुता से शत्रुता समाप्त नहीं होती। क्रोध से क्रोध समाप्त नहीं होता। वैर से वैर नहीं मिटता। और जितना वैर बढ़ता जाता है, उतना तुम अपने चारों तरफ अपने हाथों नर्क निर्मित करते चले जाते हो। ___यह जगत तुम्हारी कृति है। तुम चारों तरफ अपना परिवेश बनाते हो। यह बात तुम्हें दिखायी पड़ जाए, यह इशारा तुम्हें समझ आ जाए, तो तुम्हें फिर कोई दुख नहीं दे सकता। तुम्हारा स्वभाव तब सुख हो जाएगा।
फैलाओ मैत्री!
महावीर ने कहा है : मित्ति मे सव्व भूए सू, वैरं मज्झ न केवई। मेरी मित्रता सबसे है, सारे विश्व से है। सब भूतों से-सव्व भूए सू। और कैर मेरा किसी से भी नहीं।
महावीर के कानों में भी खीले ठोंकने वाले मिल गए, पत्थर मारने वाले मिल गए। महावीर को गांव-गांव से खदेड़कर बाहर निकालने वाले मिल गए। लेकिन महावीर यही कहते रहे, वैरं मज्झ न केवई—मेरी किसी से कोई शत्रुता नहीं। उनकी होगी, उनका हिसाब वे जानें। ___ अभी कुछ दिन पहले मैं एक कहानी कह रहा था कि दो मनोवैज्ञानिक, एक ही मकान में उनका दफ्तर था, रोज सुबह आते, लिफ्ट में सवार होते, अक्सर साथ-साथ सवार होते। वह जो लिफ्ट को चलाने वाला सेवक था, वह बड़ा हैरान था। जब भी वे दोनों साथ-साथ जाते तो पहले एक मनोवैज्ञानिक उतरता, दसवीं-बारहवीं मंजिल पर कहीं। जब भी वह उतरता, दरवाजे से लौटकर दूसरे मनोवैज्ञानिक के ऊपर थूकता, चला जाता अपनी तरफ; और दूसरा चुपचाप अपना रूमाल निकालकर अपना मुंह पोंछ लेता, टाई पोंछ लेता, या कोट पर पड़ गया होता थूक, पोंछ लेता, रख लेता और अपना बस तैयारी करने लगता, क्योंकि पंद्रहवीं या बीसवीं मंजिल पर उसको उतरना था। आखिर उस लिफ्टमैन को और सम्हालना मुश्किल हो गया।
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